हमारे मुल्क में एक बेहूदा चलन है. शायद दूसरी जगह भी हो. मगर फिलहाल तो हम यहीं घिरे हैं. चलन शादी को कोसने का. ये काम शादीशुदा लोग ही बहुतायत में करते पाए जाते हैं. एक और गया. शादी करके फंस गया. अब जिंदगी भर गुलामी करेगा. बीवी के सामने भीगी बिल्ली बनके रहेगा. दुखियारा पति…वगैरह वगैरह. ये इस विमर्श का पुरुष पक्ष है. तमाम फन्ने खां लॉजिक की लड़ी निकाल कर कहेंगे कि औरतें भी तो ऐसे कहती हैं.
तो प्यारेमोहन, जब ये इतना वजनी मसला है, तो फिर जोर काहे लगाते हो. जतन पुराण का पाठ क्यों करते हो. बहरहाल, सच्चाई तो ये है कि शादी एक शानदार गठजोड़ है, जिसके चलने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी ये है कि आपका दिल पाक साफ होना चाहिए, आपस में खुलकर बात करने का हुनर होना चाहिए और समझदारी किसी फॉर्म्युले से बंधी नहीं होनी चाहिए. ऐसा हुआ तो शादी के ढेर सारे साइड इम्पैक्ट होंगे. वर्ना तो कोसने वालों की कोई कमी नहीं.
बोर मत होइए. ये शादी पर बाबा मैरिजदास का ज्ञान नहीं. फरहान अख्तर और विद्या बालन की साकेत चौधरी के डायरेक्शन में बनी फिल्म शादी के साइड इफेक्ट्स का निष्कर्ष है. अब बात करते हैं कि फिल्म इस मोड़ तक कैसे पहुंची और जो उसके हमसफर बनने की ख्वाहिश रखते हैं यानी पब्लिक उन्हें कैसी लग सकती है.
कहानी कुछ यूं है कि सिद्धार्थ (फरहान) एक म्यूजिक कंपोजर और सिंगर है, जो फिलहाल जिंगल्स गाने पर अटका हुआ है और अपना एलबम निकालने की ख्वाहिश रखता है. उसकी पत्नी है तृषा (विद्या बालन) और वो भी एक अच्छी सी नौकरी करती है. दोनों की लाइफ सिद्धार्थ की सास (रति अग्निहोत्री) के कुछ रसमी मीन मेख निकालने के बावजूद पटाखा गुड्डी अंदाज में सनासन चल रही है. मगर तभी तृषा प्रेग्नेंट हो जाती है. फिर उसके भीतर उत्साह की कोंपले फूटने लगती हैं.
उधर सिड इस हरियाली के लिए जेहनी तौर पर तैयार नहीं. फिर कुछ ख्याली झंझावत और पट्ठा तैयार हो जाता है. बेबी होता है और शुरुआती खुशियों के पहले ही सिड के लिए क्लेश का किला तैयार हो जाता है, जिसे वह आखिरी तक नहीं भेद पाता. पति पत्नी में जिम्मेदारियों को लेकर झगड़ा होने लगता है. आर्थिक जरूरतों की बात आने लगती है और लाइफ का लहसुन छीलने के लिए जरूरी फन गायब होने लगता है.
ऐसे में सिड जाता है अपनी बहन के अब तक बोरिंग नजर आते जीजा (राम कपूर) के पास, जो बेस्ट पापा और सक्सेसफुल मैन की ट्रॉफी तोंद पर लटकाए घूमते हैं. मगर उनके मंतर को मानने के फेर में सिड की कुछ फन के बाद आत्मग्लानि के चलते लंका लगने लगती है. इसी दौरान उसकी मुलाकात ब्रो से भी होती है, जिसके साथ से जिंदगी के कमरे में कुछ नई खिड़कियां खुलती हैं. उधर तृषा की लाइफ में भी दो किरदार आ जाते हैं. काम वाली बाई उर्फ आंटी और एक पडोसी. इस घटाटोप से सिड और तृषा कैसे निकलते हैं, क्या उनका प्यार रिश्ते को बचा पाता है या फिर….
फिल्म अच्छी नीयत से बनाई गई है और इसके डायलॉग्स और प्लॉट में नयापन है, मगर ये बहुत ज्यादा खिंचने लगती है सेकंड हाफ में. साथ ही क्लाइमेक्स के दौरान दिया गया रियल ट्विस्ट अंत में फिल्मी आदर्श के बोदेपने का शिकार होता है और अंत में सब कुछ सही करने के फेर में डायरेक्टर नकली होने लगता है. शायद पब्लिक को कैसा लगेगा का प्रेशर नहीं झेल पाते साकेत चौधरी. फिल्म कई बार पति पत्नी के बीच होने वाले शाश्वत सात्यार्थ में बदलने लगती है, जिसमें तमाम जतन के बावजूद बोरियत हो सकती है.
विद्या बालन और फरहान अख्तर की एक्टिंग तो जाहिर तौर पर अच्छी है. मगर काबिले जिक्र हैं वीर दास, जिन्होंने ब्रो के किरदार में सिंगल रहो, फन करो, शादी वादी करके लोड न लो का फंडा मानने वाली जेनरेशन के जंतु को जिंदा किया है.
हैरी इज नॉट ए ब्रह्मचारी बढ़िया डांस नंबर है. चूंकि सिड एक सिंगर है, इसलिए कुछ और गानों की गुंजाइश बिना खटके बनी रहती है. बीच में ऑस्ट्रेलिया टूरिज्म के लिए लुभाता एक गाना भी इसी रेलमपेल में गुजर जाता है.
साकेत चौधरी ने इससे पहले प्यार के साइड इफेक्ट्स बनाई थी, जो मल्टीप्लेक्स ऑडियंस को बहुत पसंद आई थी. यह फिल्म उसके मुकाबले ट्रीटमेंट और फ्रेशनेस के मामले में कुछ उन्नीस साबित होती है. पर शादी के कई जरूरी पहलुओं को उघाड़ने की कोशिश कतई बुरी नहीं है.
शादी के साइड इफेक्ट्स देखिए अगर शादी कर चुके हैं. करने की सोच रहे हैं और लगता है कि अभी आपके तरकश में कुछ और तीर होने चाहिए, इसे निभाने के लिए.