आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने गोवा और पंजाब विधानसभा चुनाव 2017 में अपनी आप पार्टी को उतारा। लेकिन 11 मार्च को आए नतीजे उनके लिए अच्छे नहीं रहे। पंजाब में जहां पार्टी को सिर्फ 20 सीटों से संतोष करना पड़ा वहीं गोवा में तो आप खाता भी नहीं खोल पाई। ऐसे में केजरीवाल समेत उनकी पार्टी के बाकी नेताओं और समर्थकों के वे दावे और तथाकथित सर्वे झूठे साबित हो गए जिसमें पंजाब में आप पार्टी की सरकार बनती हुई दिखाई गई दी। पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजे यह दिखाते हैं कि नरेंद्र मोदी और केजरीवाल की लहर जो कि 2013-14 में लगभग एक वक्त पर ही शुरू हुई थी उसमें केजरीवाल की लहर ने काफी पहले ही दम तोड़ दिया था।
लहर की शुरुआत: 2013 में दिल्ली में अन्ना आंदोलन के बाद केजरीवाल ने दिल्ली का विधानसभा चुनाव लड़ा और पहली बार में ही उन्हें इतनी सीट मिल गईं कि काफी ना-नुकुर, कमसों-वादों के बाद केजरीवाल ने कांग्रेस के विधायकों के समर्थन के साथ सरकार बना ली। लेकिन वह सरकार ज्यादा दिन ना चल सकी और फरवरी 2014 में दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लग गया। उस वक्त गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी का नाम ‘विकास पुरुष’ के रूप में सामने आया और ऐसी आंधी चली कि बीजेपी और उनकी गठबंधन वाली पार्टियां 339 सीट जीत गईं। उस वक्त केजरीवाल ने भी आप के 434 उम्मीदवारों को उतारा था। लेकिन देशभर में उनके 414 उम्मीदवार ऐसे थे जिनकी जमानत तक जब्त हो गई थी। यहां तक कि केजरीवाल के साथ-साथ आप के कुमार विश्वास, आशुतोष जैसे दिग्गज नेता भी हार गए। लेकिन पार्टी को पंजाब में चार सीटें मिल गई थी। तब से ही पता लग गया था कि केजरीवाल फिलहाल दिल्ली से बाहर अपनी कोई खास इमेज बनाने में नाकाम रहे हैं।
दिल्ली ने फिर दिया प्रचंड बहुमत: 2015 में आप ने फिर दिल्ली में सरकार बनाई। इसबार 70 में से 67 सीट जीतीं, वहीं मोदी लहर होने के बावजूद भाजपा के सिर्फ तीन विधायक बने। इससे पता लगा कि दिल्ली केजरीवाल को एक और मौका देना चाहती है।
केजरीवाल का वादा: दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते वक्त केजरीवाल ने कसम खाई थी कि वह पांच साल तक दिल्ली को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे, लेकिन पंजाब में चुनाव की हवा आते ही वह वहां पहुंच गए। इतना ही नहीं उन्होंने मीडिया को बयान भी दिया कि ‘मैं तो यहीं(पंजाब) में खूंटा गाड़ के बैठूंगा’ इससे दिल्ली के लोगों का भी उनपर से विश्वास डगमाने लगा। केजरीवाल अकेले पंजाब नहीं गए। बल्कि उन्होंने दिल्ली को अपने सिर्फ एक मंत्री (पर्यावरण मंत्री इमरान हुसैन) के भरोसे छोड़कर बाकी सभी मंत्रियों-बड़े नेताओं को गोवा और पंजाब में प्रचार के लिए लगा दिया। जबकि इमरान के खुद के मंत्रालय की वेबसाइट का हाल यह है कि दिन में 20 फोन करने के बाद भी कोई फोन नहीं उठाता। वहीं वेबसाइट का दूसरा नंबर सेवा में ही नहीं है।
अब आए विधानसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि बिहार और दिल्ली में मिली हार के बावजूद मोदी की छवि ‘विकास पुरुष’ वाली बनी हुई है। इसके पीछे कारण यह भी हो सकता है कि मोदी के साथ गुजरात का विकास पुरुष वाला टैग है। मोदी और उनकी पार्टी के साथ कई लोग भी ऐसे कहते मिल जाएंगे कि मोदी ने गुजरात में काम किया। यानी अपने विकास पुरुष वाले रूप को साबित करने के लिए मोदी के पास गवाह और कुछ सबूत दोनों हैं। (गुजरात में क्या हुआ, क्या नहीं, यह अलग बहस का विषय है) वहीं इससे उलट केजरीवाल दिल्ली में अपनी छवि चमकाने की जगह, दिल्ली को पूरा वक्त देने की जगह ज्यादा वक्त पंजाब और गोवा को देने लगे।
पिछले कुछ महीनों के उनके ट्विटर अकाउंट को देखकर कोई कह नहीं सकता कि वह किसी एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और सिर्फ उसपर केंद्रित होकर काम करना चाहते हैं (जैसा कि उन्होंने वादा किया था), इसके अलावा ना ही दिल्ली में ऐसा कोई बड़ा काम ही हुआ जिसका बाकी राज्यों में उदाहरण दिया जा सके। अब भी केजरीवाल अपने कामों से ज्यादा अपने विवादों को लेकर चर्चा में रहते हैं। ऐसे में केजरीवाल को चाहिए कि टिककर पहले दिल्ली में काम करें बाद में कुछ और सोचें।
केजरीवाल की आप इस साल होने वाले दिल्ली निगम पार्षद के चुनाव में भी उतर रही है। दो राज्यों में मिली हार का उसके नतीजों पर भी प्रभाव पड़ेगा ही।