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Monday, December 9, 2024

कमजोर की जा रही मनोज तिवारी की दावेदारी

दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी

लगातार तीसरी बार नगर निगमों के चुनाव में जीत के अगुआ बने भोजपुरी के लोकप्रिय कलाकार और दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी के पार्टी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बनने के राह में अपने ही लोग बाधा बन रहे हैं। तिवारी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का समर्थन होने के कारण खुलेआम विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। आरोप लग रहे हैं कि योजनाबद्ध तरीके से कम हैसियत के नेताओं की टीम बनाकर तिवारी को कमजोर करने की कोशिश की गई।

एक तो भाजपा के संगठन की बनावट ऐसी है कि पार्टी अध्यक्ष के बराबर की हैसियत का संगठन महामंत्री बना दिया जाता है। दूसरे प्रभारी अगर अध्यक्ष के अनुकूल न हो तो अध्यक्ष के लिए काम करना कठिन रहता है। मनोज तिवारी को नगर निगम में पार्टी का चेहरा बनाने वाले नेता आसानी से उन्हें मुख्यमंत्री का भाजपा उम्मीदवार नहीं बनने दे सकते हैं। पंजाब विधान सभा चुनाव हारने के बाद निगम चुनाव में भी हार मिलने के बाद दिल्ली में शासन कर रही आम आदमी पार्टी (आप) बिखरने के कगार पर है। कपिल मिश्र के बाद पार्टी के एक और बड़े नेता कुमार विश्वास भी पार्टी से निकलने के कगार पर हैं। गैरकानूनी तरीके से संसदीय सचिव बनाए गए आप के 12 विधायकों की सदस्यता पर चुनाव आयोग का फैसला कभी भी आ सकता है। बवाना के विधायक इस्तीफा देकर भाजपा में जा चुके हैं। चार विधायक पहले से ही बागी बने हुए हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि दिल्ली में कभी भी मध्यावधि चुनाव हो सकते है। इसलिए भले ही कोई दल घोषित न करे लेकिन सभी दल विधान सभा चुनाव की तैयारी में लग गए हैं।

भाजपा का वोट बैंक बढ़ाने के लिए बिहार मूल के दिल्ली उत्तर पूर्व के सांसद मनोज तिवारी को दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बनाया। भाजपा के 32 पूर्वांचल मूल के उम्मीदवारों में 20 चुनाव जीतने में सफल रहे। बावजूद इसके अगर पंजाब चुनाव ‘आप’ जीत गई होती तो भाजपा की राह कठिन होती। कांग्रेस को पंजाब चुनाव जीत का पूरा फायदा नहीं मिल पाया। भाजपा के नेता इसी से खुश थे कि पार्टी तीसरी बार निगम चुनाव जीत पाई लेकिन दिल्ली की सरकार से करीब बीस साल से दूर रहने का मूल कारण तो गुटबाजी और भाजपा के वोट में बढ़ोतरी न होना ही माना जाता है। एक खास वर्ग और कुछ जातियों की पार्टी माने जाने वाली भाजपा में यह परंपरा सी बन गई थी कि पंजाबी और बनिया के अलावा कोई पार्टी का चेहरा नहीं बन सकता है। अब बड़ा पंजाबी चेहरा भी भाजपा से गायब हो गया है। यह समझना जरूरी है कि दिल्ली बदल चुकी है।

बिना नए वर्ग को जोड़े पार्टी सरकार में नहीं आ सकती है। मनोज तिवारी 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल होकर 2014 में दिल्ली उत्तर पूर्व के सांसद बने तो यह माना गया कि पार्टी की प्राथमिकता बदल रही है। उसे पूर्वांचल के लोगों को जोड़ने की चिंता है। पार्टी गठन होने से लेकर निगम चुनावों के लिए टिकट बंटने तक भी मनोज तिवारी ने पार्टी के फैसलों में ज्यादा दखल नहीं दी। निगम चुनाव नतीजों ने मनोज तिवारी को सही मायने में राजनेता बना दिया। फिर तो उनके समर्थक उन्हें दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री बताने लगे।

मनोज तिवारी भी संभल कर बोलने और फैसला लेने लगे। निगम पार्षदों को एक केंद्रीय मंत्री के घर बुलाने से प्रदेश अध्यक्ष नाराज हुए और उनकी ओर से मना किया गया लेकिन कई नेताओं ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और आयोजन में शामिल हुए। विवाद बढ़ने पर पार्टी नेताओं ने सुलह करवा दी। संभव है सुलह के बावजूद मनभेद खत्म न हुआ हो। क्योंकि तिवारी के न चाहते हुए निगम में भाजपा के कई नेता पदाधिकारी बने।

दिल्ली का राजनीतिक समीकरण बदल गया है। विधान सभा की 70 में से 50 सीटें ऐसी हैं जहां पूर्वांचल के प्रवासी दस फीसद से लेकर 60 फीसद तक हैं। पहली बार भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बिहार मूल के नेता को बनाया है। इसलिए आसानी से मनोज तिवारी और उनके समर्थक अपनी दावेदारी नहीं छोड़ने वाले हैं। उन्हें पता है कि उनके साथ दिल्ली के एक बड़े वर्ग का समर्थन है जो पहले कांग्रेस और फिर आप के साथ हो गया था।

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