अब्दुल बारी अतवान, अरब जगत के जाने माने पत्रकार हैं और लंदन से रायुल यौम समाचर पत्र निकालते हैं। ओस्लो समझौते के बारे में उनका यह लेख कई रहस्यों से पर्दा उठाता है।
आज से पच्चीस साल पहले, फिलिस्तीनी जनता और संगठन, आधुनिक अरब समाज के , सब से बड़े जाल में फंस गये। यह जाल, इस्राईल, उसके कुछ अरब और पश्चिमी घटकों ने बिछाया था, इस जाल में अरब आंख खोल कर फंसे और अब तक छटपटा रहे हैं।
20 अगस्त 1993 में पहली बार फिलिस्तीनियों और इसराईल के मध्य ओस्लो में समझौता हुआ जिसे ओस्लो समझौता कहा गया और फिर 13 सितम्बर को वाशिंग्टन में बिल क्लिंटन, यासिर अरफात और इस्हाक राबिन की उपस्थिति में इस समझौते को लागू कर दिया गया।
वाइट हाउस में इस अवसर पर फोटो सेशन में मुस्कराते चेहरे अधिकांश फिलिस्तीनियों को ज़हर लगे क्योंकि इस समझौते में उन्हे वादे मिले थे और बस!
यासिर अरफात पर दबाव बहुत ज़्यादा था। अधिकांश अरब देश और विशेष फार्स की खाड़ी के देश उन पर दबाव डाल रहे थे क्योंकि कुवैत युद्ध के समय वह इराक़ के साथ थे। उन पर अरब , युरोपीय और कुछ फिलिस्तीनी गलियारों का दबाव था इसी लिए वह ओस्लो की राह पर चले गये जिसे तैयार करने में महमूद अब्बास का बड़ा हाथ था।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि ट्यूनेशिया में मैं यासिर अरफात के साथ चहलक़दमी के लिए निकला तो अचानक वह मुझे अलग ले गये और मुणे से कहा कि मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं लेकिन यह भी चाहता हूं कि यह बात मेरी ज़िंदगी में तुम किसी से नहीं कहोगे। फिर उन्होंने कहा कि मैं ओस्लो के रास्ते फिलिस्तीन जा रहा हूं। मैं सतर्क हूं मगर फिलिस्तीन को उसके संगठन और उसका संघर्ष फिर से लौटाऊंगा। मैं तुमसे वादा करता हूं कि तुम यहूदियों को फिलिस्तीन से उसी तरह से भागते देखोगे जैसे डूबते जहाज़ से चूहे भागते हैं, लेकिन यह मेरी जिंदगी में नहीं होने वाला, अलबत्ता तुम्हारी ज़िदंगी में यह होगा। इसके साथ ही उन्होंने बल दिया कि उन्हें इस्रालियों पर भरोसा नहीं और अब मुझे यक़ीन हो गया कि वह सच बोल रहे थे।
अब्दुलबारी अतवान
यासिर अरफात शहीद हो गये जिसकी उन्हें इच्छा थी। कई महीनों तक उन्हें उनके कार्यालय में नज़र बंद रखा गया और फिर इस्राईली ज़हर से उन्हें मार डाला गया क्योंकि उन्होंने कैंप डेविड समझौते पर हस्ताक्षर से इन्कार कर दिया था , क्योंकि उन्होंने बैतुल मुक़द्दस को छोड़ने से इन्कार कर दिया था, क्योंकि उन्होंने वापसी के अधिकार से पीछे हटना स्वीकार नहीं किया था और क्योंकि उन्होंने दूसरी सशस्त्र इंतेफाज़ा आंदोलन को हवा दी थी और मुझे यह भी मालूम है कि वह गज़्जा में हमास आंदोलन के साथ सहयोग करते थे, धन से, हथियारों से इसके लिए उन्होंने दक्षिणी लेबनान में सक्रिय हिज़्बुल्लाह के साथ मिल कर एक पुल बनाया था जो ड्रम के अंदर हथियार भर कर पानी के जहाज़ों की मदद से गज़्ज़ा पट्टी में हमास के पास पहुंचाते थे क्योंकि यह समझ गये थे कि इस्राईलियों को शांति नहीं चाहिए और यह कि इस्राईली समझौता नहीं करना चाहते और न ही फिलिस्तीनी देश के गठन की अनुमति देने वाले हैं।
हमास
मैं इस बारे में अधिक रहस्यों से पर्दा नहीं हटाना चाहता और न ही यासिर अरफात का बहुत अधिक गुणगान करना चाहता हूं लेकिन यह मानना हूं कि ओस्लो समझौता एक एतिहासिक गलती थी और वह जह़र बुझा तीर अब तक फिलिस्तीनियों के दिल में फंसा है और आज अरबों के सारे अपमान की जड़ यही समझौता है यहां तक कि यह जो सेन्चुरी डील की बात हो रही है उसकी जड़ भी यही समझौता है।
इंतेफाज़ा आन्दोलन
मुझे पूरा विश्वास है कि सेन्चुरी या कोई भी डील , फिलिस्तीन मुद्दे को खत्म नहीं कर सकती और न ही इस प्रकार की किसी डील से अरब इस्राईल झगड़ा खत्म होगा।
इस्राईल ने सन 1967 में अरबों को परास्त करके फिलिस्तीनी स्वतंत्रता संग्राम को खत्म करना चाहा लेकिन उसकी राख से संघर्ष की ज्वाला धधकी फिर उन्होंने इस आग को, ओस्लो समझौते का पानी डाल कर बुझाने की कोशिश की मगर उसकी कोख से हमास और जेहाद से संगठनों ने जनम लिया, ओस्लो समझौता फिलिस्तीनियों के लिए त्रासदी था मगर इसमें कई पाठ भी हैं। (Q.A.) ( अब्दुलबारी अतवान, रायुल यौम)