सीतापुर-अनूप पाण्डेय, अमरेंद्र पांडेय /NOI-उत्तरप्रदेश् जनपद सीतापुर .गोरखपुर और फूलपुर की सीटों की हार से सीखने के लिए बहुत कुछ है. भारतीय जनता पार्टी के वोटरों के लिए भी और स्वयं भारतीय जनता पार्टी के लिए भी. जब आप कोई भी चुनाव लड़ते हैं तो आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि अपना कार्य क्षेत्र बढ़ाने के साथ ही आपको उनका भी ध्यान रखना पड़ता है जिन्होंने आपको वहां तक पहुंचाया है जहां पर पहुंचकर आज आप स्वयं को इतनी बड़ी पार्टी बोल रहे हैं. पहले जरा बात करते हैं भारतीय जनता पार्टी की.
सबसे पहले बात करते हैं मध्यमवर्ग की. देश के वित्त मंत्री द्वारा मध्यम वर्ग को बार बार यह कह क्रोध दिलाना कि हमने मध्यम वर्ग को पिछले बजट में बहुत कुछ दिया है. ₹200 किलो की दाल और महंगाई की मार झेल रहे मध्यम वर्ग को सिर्फ एक व्यक्ति से ही आस रहती है और वह है वह व्यक्ति जिसको उसने चुनाव में वोट दिया होता है. यह हो सकता है कि मोदी लहर में आप जीत जाएं परंतु आप को जिताने वाले जब आपसे सवाल पूछेंगे तो यह आप का कर्तव्य बनता है कि आपको जवाब देना पड़ेगा क्योंकि उस जवाब के वह हकदार होते हैं. अपने परंपरागत वोट बैंक को नाराज करके नए वोट बैंक की तलाश करना सदैव ही भारी पड़ता है. एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर देने के साथ यदि आप उन लोगों का भी ध्यान रखते हैं जिन्होंने आप को एक हाथ में सीट और दूसरे हाथ में अपना विश्वास पकड़ाया है तो बेहतर होता. ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी ने सब कुछ गलत ही किया है, परंतु यह भारतीय जनता पार्टी का दुर्भाग्य कहें की उसको कांग्रेस की तरह सिद्धि नहीं प्राप्त हुई. कांग्रेस की सिद्धि प्राप्त होना सबके बस की बात नहीं होती. जब आप 1984 सिख विरोधी दंगे करा कर भी चुन लिए जाते हैं. जब आप देश का बटवारा करवाने के बाद भी 60 साल चुन लिए जाते हैं. जब आप कश्मीरी पंडितों के मृत शरीरों पर राजनीति खेल कर भी चुन लिए जाते हैं. जब आप देश को इतना लूट लेते हैं कि देश भ्रष्टाचार की बरगद जेसी जड़ में फस कर रह जाता है मगर आप उस एक कलंक से चुपचाप बचकर निकल जाते हैं क्योंकि आपको वह सिद्धि प्राप्त है जिसमें आप कुछ भी करके बच निकलते हैं. भारतीय जनता पार्टी को तो सब कुछ तेजी से करना पड़ता है. वह 70 साल में राम मंदिर नहीं बना पाए मगर भारतीय जनता पार्टी को 5 साल के अंदर राम मंदिर बना कर देना पड़ता है. भारतीय जनता पार्टी के लोगों को खुद ही के समर्थकों से विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि वह इसलिए विरोध करते हैं ताकि भारतीय जनता पार्टी वह सारे कार्य कर दे जो पिछले 70 साल में कांग्रेस द्वारा नहीं किया जा सके और वह भी 5 साल के अंतराल के भीतर ही करके दिखा दे नहीं तो जनता उस को चुनने के लिए तैयार बैठी है जिसने 70 साल में कुछ नहीं किया. मध्यमवर्ग को अधिक लाभ ना सही परंतु उनको सांत्वना तो दे ही सकते हैं? परंतु यह ऊंचे दर्जे की राजनीति है. सबके समझ से बाहर.
अब जरा बात कर लेते हैं वोटरों की.
आज ही के गोरखपुर सीट के उपचुनाव के पहले दौर के नतीजे के समय समाजवादी पार्टी के गोरखपुर से प्रत्याशी प्रवीण निषाद यह कहकर गोरखपुर में हो रही मतगणना को छोड़कर चले गए थे कि ईवीएम में गड़बड़ी की गई है और इसीलिए भारतीय जनता पार्टी इतना अधिक वोटों के अंतराल से जीतते हुए दिखाइ दे रही है. TV चैनलों पर समाजवादी पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा ईवीएम खराब है वाले नारे लगने शुरु भी हो गए थे. परंतु 12 बजते ही प्रवीण निषाद दोबारा मतदान केंद्र पहुंचे और भारतीय लोकतंत्र की दुहाई देने लगे. बाकी विपक्षी पार्टियों को भी ईवीएम सही लगने लगा. क्योंकि समाजवादी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार पर बढ़त बनाने शुरू कर दी थी. फूलपुर का भी कुछ ऐसा ही हाल था.
अब इसी से सीखने वाला सबक यह रहा कि वह तो जीतने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी कटघरे में खड़ा करने के लिए तैयार हैं परंतु आप सिद्धांत को लेकर अभी तक बैठे हैं. सिद्धांत अपनी जगह सही है परंतु जब आप रणभूमि में खड़े होते हैं तो सिद्धांत से अधिक आवश्यकता रणनीति की होती है.जिस नरेश अग्रवाल के नाम पर अपनी ही पार्टी के खिलाफ नोटा का बटन दबाने को तैयार बैठे वोटर आज अपना क्रोध सोशल मीडिया पर दिखा रहे हैं उनको भी यह तथ्य पता है कि गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती आज समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने के लिए सिर्फ इसलिए तैयार हो गई है ताकि केंद्र में बैठी बीजेपी को हराया जा सके. अब जानते हुए अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना तो समझदारों का कार्य कतई भी नहीं है. यह साफ है कि उनके कोई सिद्धांत नहीं. सिद्धांत सिर्फ उन लोगों के लिए कार्य करते हैं जो आप के सिद्धांत की कद्र करें या ना करें परंतु स्वयं के सिद्धांत पर अडिग रहें. स्वयं को जान से मारे जाने वाली हरकत के बाद भी यदि मायावती उसी पार्टी से हाथ मिला सकती है जिसके गुंडों ने उनको मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उस पार्टी के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं जिसने उनके प्राणों की रक्षा की तो भारतीय राजनीति में सिद्धांत का क्या स्थान है यह आप स्वयं तय कर लीजिए.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह चुनावी गणित है. दुख की बात यह है कि अटल बिहारी वाजपेई के 2004 वाले सबक से भी हमने कुछ नहीं सीखा. उन्होंने भी अपने सिद्धांत की दुहाई देते हुए कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों से सिद्धांत पर चलने की अपील की थी और वह भाषण दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि आज हमारे पास संख्या बल नहीं है परंतु हम फिर से मेहनत करेंगे और उस संख्याबल को प्राप्त करने के लिए और मजबूती से प्रयास करेंगे.जब सोनिया गांधी द्वारा भारतीय जनता पार्टी को भ्रष्टाचारी और सांप्रदायिक ताकत जैसे विशेषणों से संबोधित किया गया था तो अटल बिहारी वाजपेई ने उसी सदन में खड़े होकर बोला था कि अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के बारे में आपका यह मूल्यांकन है?
यह अटल जी के सिद्धांत थे परंतु उस समय भी विपक्ष में उसी सिद्धांतहीनता को दर्शाया था जिस सिद्धांतहीनता को वह आज दर्शा रहा है. एक नरेश अग्रवाल के खिलाफ क्रोध योगी और मोदीयों पर भारी पड़ेगा जो आपके लिए तब से लड़ते आ रहे हैं जब कांग्रेस के आगे कोई खड़ा भी नहीं हुआ था. वह एक दूसरे के खून के प्यासे लोग एक साथ आकर उस को हराने के लिए खड़े हो गए हैं जो आपकी बात करता है. जिन्होंने 70 साल राम मंदिर नहीं बनने दिया वह आज राम मंदिर बनाने की बात करते हैं. टोपी पहनकर मजारों पर चादर चढ़ाने वाले आज जनेऊ धारी बनकर घूम रहे हैं? क्या यह अचानक से हो गया? बिल्कुल भी नहीं. अगर वह आपकी इतने ही हितैषी होते हैं तो बहुत पहले ही राम मंदिर के लिए सुप्रीम कोर्ट चले गए होते परंतु यह कार्य BJP को करना पड़ा क्योंकि उसे पता था कि उसके कर्तव्य अपने वोटरों के लिए क्या है. विपक्ष दो आज भी राम मंदिर ना बनाने के लिए अपने नेताओं को सुप्रीम कोर्ट में हिंदुओं के खिलाफ केस लड़ने के लिए भेज रहा है और वह भी सेक्युलरिज्म के नाम के ऊपर और वहीं उनके अध्यक्ष गुजरात में जनेऊधारी बनकर घूमते हैं. एक लोकतांत्रिक देश में रहते हुए यह कर्तव्य बनता है कि हम लोकतंत्र के हिसाब से चलें. शाहबानो वाला कार्य भारतीय जनता पार्टी भी कर सकती है, परंतु ऐसा नहीं करती क्योंकि यह उसके सिद्धांत है. चुनाव जीतने के लिए सिद्धांतों की आवश्यकता नहीं होती बल्कि चुनावी गणित की आवश्यकता होती है. परंतु चुनाव जीतने के बाद आप अपने सिद्धांतों पर चल सकते हैं.
आज बहुत से वोटर नोटा दबाने का विचार कर चुके हैं. एक लोकतांत्रिक देश में रहते हुए यह उनका अधिकार है कि वह किसको वोट दें परंतु वह एक बात सदैव याद रखें. जो गलती 2004 में हुई थी वह यदि एक बार फिर से दोहराई गई तो फिर इसके जिम्मेदार स्वयम आप होंगे. अपनी दुर्गति के जिम्मेदार आप स्वयम होंगे. यह कोई धमकी नहीं बल्कि एक चेतावनी है उन सभी के लिए जिन्होंने सेक्युलरिज्म के नाम पर तुष्टिकरण का दंश झेला है.
हमारा क्या है ? हम एक बार फिर से सड़कों पर उतर आएंगे आपकी लड़ाई लड़ने के लिए परंतु सत्ता में आ भी गए तो क्या होगा? हम एक बार फिर से कोई ना कोई नेता खड़ा कर कर सत्ता में आ भी गए तो आप 4 साल के भीतर ही यह कहेंगे कि 70 साल का गड्ढा भर दो. यही तो हमारी परेशानी है. हमें सब कुछ तुरंत चाहिए और नहीं दे सकते तो हम उनको दोबारा सत्ता की गद्दी पर बैठाने के लिए तनिक भी समय नहीं लगाते हैं जिन्होंने हमारे हाथ में कुछ भी नहीं पकड़ाया, निराशा के अलावा ।