मोहम्मद शरीफ (80) के पूरे कपड़े मिट्टी से बिगड़े होते हैं जब वह ताडवाली तकिया कब्रिस्तान में मिट्टी के टीलों को पार करते हुए एक हरे रंग से पुते कमरे में पहुंचते हैं। इस कमरे के बाहर तीन बोर्ड टंगे हैं जिस पर लिखा है ‘लावारिस मय्यतमाटी का गुसलखाना’। वह चुपचाप दरवाजा खोल कर कमरे में जाते हैं जहां वह सैकड़ों शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं। यह शवों में कुछ हिंदुओं के होते हैं तो कुछ मुस्लिमों के। शरीफ शवों के साथ भेदभाव नहीं करते।
प्रधानमंत्री मोदी के शमशान और कब्रिस्तान वाले बयान से नाराजगी जताते हुए शरीफ कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री जी का लोगों को बांटनेवाली बात कहना बिल्कुल भी सही नहीं था। हम हिंदु और मुस्लिम दोनों की मिट्टी गले से लगाते हैं और यह लोग सबको अलग करना चाहते हैं।’ शरीफ पिछले 25 सालों से फैजाबाद में लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। वह पूरे अयोध्या में शरीफ चाचा के नाम से मशहूर हैं।
शरीफ राजनीतिक दलों से नाराजगी जताते हुए कहते हैं, ‘यह सब वोट के चक्कर में नेता लोग बोलते हैं पर मेरी इज्जत तो हिंदुओं के कारण ही बढ़ी है। हमारा खून एक जैसा है और मेरी मोहब्बत किसी जाति या धर्म तक सीमित नहीं है।’ शरीफ को अब तक कई सरकारों और गैर-सरकारी संस्थाओं से प्रशस्ति पत्र मिल चुके हैं। शरीफ पेशे से साइकल मेकैनिक हैं और रोज़ाना कब्रिस्तान और शमशान भूमि के बीच चक्कर काटते रहते हैं।
जब शरीफ से यह पूछा गया कि आखिर उन्होंने सेवा का यही तरीका क्यों चुना? तो शरीफ ‘चाचा’ फरवरी 1992 में अपने बेटे की मौत को याद करते हुए कहते हैं, ‘मोहम्मद रईस खान मेरा बड़ा बेटा था जो केमिस्ट के तौर पर काम करने के लिए सुल्तानपुर गया था लेकिन एक महीने तक गायब रहा। उस समय रामजन्मभूमि का विवाद चल रहा था जिसके कारण 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। बाद में, एक बोरे से रईस की लाश मिली। उसकी हत्या कर दी गई थी। बस तभी से मैंने यह फैसला किया कि अब किसी भी लावारिस लाश को सड़क पर नहीं सड़ने दूंगा।’
मोहम्मद शरीफ तभी से अपने कुछ पड़ोसियों के सहयोग से यह मानव सेवा का काम कर रहे हैं। हालांकि इस सेवा में वह पैसे की कमी से भी जूझते हैं लेकिन वह कैश में दिया गया दान और कफन ही होते हैं जिसके जरिए शरीफ चाचा यह सेवा कर पा रहे हैं।