उत्तर प्रदेश के लगभग तमाम नेताओं के जान खतरे में हैं है. प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा राजनेता हो, जिसे जान का खतरा न हो.
सूबे के माननीयों में ‘कड़ी सुरक्षा’ में रहने की ललक बढ़ती ही जा रही है. गृह विभाग में सुरक्षा पाने की चाह में आने वाले आवेदनों को देखकर तो यह लगता है कि प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा राजनेता हो, जिसे जान का खतरा न हो.
माननीयों को सुरक्षा देने में प्रदेश सरकार का अरबों रुपया खर्च होता है. यह पैसा जनता की गाढ़ी कमायी से जुटाये गये टैक्स से दिया जाता है. इस समय प्रदेश के 1476 लोगों को विशेष श्रेणी की सुरक्षा मिली है. 2913 पुलिसकर्मी इनकी सुरक्षा कर रहे हैं, जिन पर सरकार का करीब सवा अरब रुपये खर्च होता है.
राजनीति में बढ़ता कद माननीयों को ज्यादा तगड़ी सुरक्षा लेने का सबब तो बन जाता है लेकिन इसकी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ती है जिन्हें वास्तव में सुरक्षा की जरूरत है. सूबे में सरकार बदलने के साथ नेताओं की सुरक्षा हटाने या बढ़ाने का खेल भी कम नहीं होता.
वर्ष 2007 में प्रदेश में बसपा की सरकार बनने के हफ्ते भर के भीतर ही 46 महानुभावों की सुरक्षा वापस ले ली गयी थी. इनमें वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की भी सुरक्षा वापस ली गयी थी.
नेताओं के बीच ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा पाने के चलन पर एक पुलिस अधिकारी कहते हैं कि जान का खतरा दिखाकर पहले एफआईआर दर्ज कराना और सरकारी गनर पाने का तरीका खासतौर पर नेताओं को बहुत रास आया है.
यह बात दीगर है कि ऐसे मामलों में जब विवेचना होती है तो नेताओं को दी गयी धमकी गीदड़ भभकी ही साबित होती है. एक पूर्व मुख्यमंत्री को एसपीजी सुरक्षा चाहिये थी तो उनके लिए पुलिस ने खासी कहानी ही गढ़ दी थी, बाद में वह मामला भी फर्जी ही साबित हुआ.