बात सिर्फ नाम देने की नहीं है, नीतीश ने लालू-राबड़ी के जंगल राज के खिलाफ अभियान छेड़कर ही बीजेपी के साथ बिहार की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रहे थे। बहरहाल, सवाल यह है कि आखिरकार लालू-राबड़ी के 15 सालों के शासन को जंगल राज का नाम क्यों दिया गया? यह जानने के लिए लालू-राबड़ी शासन6 के दौरान 1990 से 2005 के बिहार के हालात पर नजर डालना होगा। तो चलिए देखते हैं, लालू-राबड़ी शासन में ‘जंगल राज’ की कुछ झलकियां…
दरअसल, जंगल राज से मतलब नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, अपराधियों के आपराधिक सांठगांठ से है। लालू-राबड़ी के शासन में भी ऐसे ही नेक्सस बने थे। बिहार का चप्पा-चप्पा अपहरण, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, रंगदारी, भ्रष्टाचार आदि की घटनाओं से लबरेज था। विरोधियों ने तो यहां तक कह दिया कि लालू-राबड़ी के शासन में किडनैपिंग को उद्योग का दर्जा मिल गया। जब जिसे जैसे इच्छा होती थी, बेरोकटोक किसी को उठा लेता था। खासकर, डॉक्टर, इंजिनियर और बिजनसमेन अपहरणकर्ताओं के निशाने पर रहते थे। इन्हें दिनदहाड़े उठा लिया जाता था और ऐसी घटनाएं करीब-करीब रोज ही सामने आतीं। द टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से तब करवाए गए एक सर्वे से पता चला कि साल 1992 से 2004 तक बिहार में किडनैपिंग के 32,085 मामले सामने आए। कई मामलों में तो फिरौती की रकम लेकर भी बंधकों को मार दिया जाता था। बिहार पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक, साल 2000 से 2005 की पांच साल की अवधि में 18,189 हत्याएं हुईं। इस आंकड़े को ध्यान में रखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि 15 सालों में 50 हजार से ज्यादा लोग मौत के घाट उतार दिए गए। हैरानी की बात यह है कि सिर्फ घोषित अपराधी ही मर्डर नहीं किया करते बल्कि सांसदों-विधायकों के इशारों पर भी हत्याएं होती थीं। सीवान के सांसद शहाबुद्दीन की करतूतों को भला कौन भूल सकता है। लालू-राबड़ी के राज में बिहार जातीय हिंसा की आग में झुलस गया था। नक्सली वारदातों का जवाब देने के लिए अगड़ी जातियों और खासकर भूमिहारों ने रणबीर सेना का गठन किया। इन दोनों संगठनों ने एक-एक बार में सैकड़ों लोगों की हत्याएं कर बिहार की धरती को रक्तरंजित कर दिया था। भोजपुर के सहार स्थित बथानी टोला नरसंहार हो या जहानाबाद के अरवल स्थित लक्ष्णपुर बाथे कांड अथवा अरवल के ही शंकरबिगहा कांड, इन नरसंहारों को कोई भुला नहीं सकता। बिहार में जातीय हिंसा का अंत 16 जून, 2000 को औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड के मियांपुर गांव में हुए नरसंहार से माना जा सकता है। इस घटना में यादव जाति के 33 लोग मारे गए थे। रणबीर सेना की ओर से हर कार्रवाई का जवाब देने वाले नक्सलियों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी।
लालू-राबड़ी शासन में शहाबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव जैसे कई नेताओं का अपने-अपने इलाके में आतंक व्याप्त था। उनका कहना कानून था, उनका आदेश ही शासन है। पटना में रीतलाल यादव के आतंक को भला कौन भूल सकता है। रीतलाल अभी विधानपरिषद के सदस्य हैं। पटना सीट उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जेडी(यू), आरजेडी और बीजेपी के प्रत्याशियों को पीछे छोड़ दिया। उन पर अब भी दर्जनों संगीन मामले दर्ज हैं। लालू-राबड़ी के शासन में नौकरशाहों और अधिकारियों के हाथ-पांव फूले रहते थे, यह सोचकर कि ना जाने कब ट्रांसफर ऑर्डर आ जाए। कई बार तो आधी रात को ट्रांसफर ऑर्डर निकाल दिया जाता था। अधिकारी जब सुबह अखबार पढ़ते तो पता चलता कि उनका ट्रांसफर फलां जगह हो गया है। वे दौड़े-भागे अपने-अपने आका के पास पहुंचते और ट्रांसफर रुकवाने के लिए भारी नजराना पेश करते। इससे पूरा शासन-प्रशासन अस्थिर हो गया। लालू यादव को सामाजिक न्याय के प्रतीक पुरुष के रूप में देखा जाता है। लेकिन, सच्चाई यह भी है कि उन्होंने दलितों और कमजोर वर्ग के लोगों को आवाज देने के लिए तथाकथित उच्च जातियों पर जुल्म किए। लालू पर जाति की राजनीति को परवान चढ़ाने का भी आरोप लगता रहा है। इस आरोप के समर्थन में लोग लालू के ‘हमको परवल बहुत पसंद है, भूरा बाल साफ करो’ जैसे जुमले याद दिलाते हैं। परवल का पूरा-पूरा मतलब पाण्डेय यानी ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य यानी बनिया और लाला से लगाया जाता है, वहीं भूरा का मतलब भूमिहार और राजपूत से और बाल से तात्पर्य ब्राह्मण और लाला जाति से लगाया जाता है।
कहा जाता है कि लालू-राबड़ी के शासन में राबड़ी के भाइयों साधु यादव और सुभाष यादव ने आतंक मचा रखा था। साल 2001 में लालू के साले साधु और उनके आदमियों ने आईएएस ऑफिसर एन. के. सिन्हा से बंदूक की नोंक पर एक ऑर्डर पास करवाया था। अभी दोनों ही लालू से अलग हैं। सुभाष तो पप्पू यादव से जा मिले हैं। लालू-राबड़ी शासन में खाद्य और उपभोक्ता मंत्री पूर्णमासी राम, संस्कृति मंत्री अशोक सिंह जैसे कई मंत्रियों ने अपने ही विभाग के अधिकारियों के खिल