लालकृष्ण आडवाणी पार्टी को खड़ा करने वाले नेता हैं और इन सालों में उन्हें भी पार्टी से उतना ही सम्मान मिला है
राजनीतिक गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह लालकृष्ण आडवाणी की चर्चा हो रही है. आडवाणी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बनाए जाने को कोई अन्याय बता रहा है तो कोई इसे अपमान करार दे रहा है.
कुछ तो इसे गुरु शिष्य परंपरा से जोड़कर शिष्य का गुरु से विश्वासघात बता रहे हैं लेकिन देश के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो यह साफ हो जाएगा कि आडवाणी के साथ कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ.
भारतीय राजनीति में यह बर्ताव आम रहा है बल्कि कई दलों के बुजुर्ग नेताओं की तुलना में आडवाणी सबसे भाग्यशाली कहे जाएंगे. जिन्हें पिछले 50 साल से पार्टी में लगातार सम्मान मिल रहा है. शिवसेना के बालासाहेब ठाकरे को अपवाद मान लें तो किसी भी दल में, किसी भी नेता को, इतने लंबे समय तक इतना सम्मान नहीं मिला है.
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह सम्मान आडवाणी को उपहार में नहीं मिला बल्कि यह उनके बेहतरीन राजनीतिक अवदान के सम्मानस्वरूप ही उन्हें मिला.
बावजूद इसके भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां अगली पीढ़ी के नेताओं ने पार्टी या सरकार पर अधिकार पाने के लिए वरिष्ठ नेता को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
सीताराम केसरी से हुई थी धक्कामुक्की
याद होगा कि सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के साथ कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने कांग्रेस कार्यालय में धक्कामुक्की की थी, उनके कपड़े फाड़ दिए थे और सीताराम केसरी को बाथरूम में छिपना पड़ा था.
कांशीराम के साथ अंत में जो हुआ वह सुखद नहीं कहा जा सकता. जिस जॉर्ज फर्नांडिस की मदद से नीतीश कुमार सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे आज उस जॉर्ज फर्नांडिस की स्थिति क्या हुई, ये सभी जानते हैं.
पिछले दिनों उनका जन्मदिन था, पर उनके पूर्व अनुयायियों में से किसी ने उन्हें याद भी नहीं किया. मुलायम सिंह का पिछले कुछ महीनों में क्या हाल हुआ किसी से छिपा नहीं है.
बीजेपी को यहां तक पहुंचाने में बेशक आडवाणी का योगदान है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के भरोसे पार्टी यहां तक पहुंची यह कहना भी गलत ही होगा.
आडवाणी ने पार्टी के लिए बहुत-कुछ किया है, इसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पार्टी ने भी उन्हें बहुत-कुछ दिया भी है. पार्टी अध्यक्ष पद के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में ज्यादा अधिकार उन्हीं के पास थे और हर निर्णय उनकी सहमति से ही होता था.
इतना ही नहीं 2009 के चुनाव में भी उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी बनाया गया, लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी को बहुमत नहीं मिला. यह कहना तर्कसंगत नहीं है कि मोदी ने आडवाणी के साथ गलत किया है, जबकि गुजरात दंगों के बाद भी उन्हीं के कारण मोदी मुख्यमंत्री बने रह सके थे. लेकिन इतने वर्षों की इन दोनों नेताओं की राजनीति में केवल यही एक प्रसंग नहीं हुआ है.
रथयात्रा में मोदी की थी अहम भूमिका
कारवां डेली से साभार
आडवाणी की सोमनाथ रथयात्रा में मोदी की अहम भूमिका रही थी. आडवाणी पिछले कई वर्षों से गांधीनगर से सांसद हैं. आडवाणी की गैरमौजूदगी चुनाव अभियान और प्रचार में मोदी की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता.
ऐसा नहीं कि मोदी को सब कुछ सहजता से मिला. वाघेला मुख्यमंत्री बनने को लेकर बीजेपी से अलग हो गए और बाद में वापसी की तो इस शर्त पर कि मोदी को गुजरात से हटाया जाए. तब मोदी को गुजरात से हटाकर दूर कश्मीर भेज दिया गया उस शर्त पर सहमति जताने वालों में आडवाणी प्रमुख थे.
केशूभाई के नेतृत्व में जब चुनाव में हार पक्की दिख रही थी, तब फिर मोदी को गुजरात भेजा गया. उस दौरान भी हार का ठीकरा मोदी के सिर फोड़ने की साजिश की बात आई थी. इस बात से सहज इंकार नहीं किया जा सकता कि निर्णय आडवाणी की सहमति के बिना लिया गया हो.
बावजूद मोदी ने न सिर्फ वह एक चुनाव जितवाया, बल्कि लगातार तीन चुनाव जीतकर हैट्रिक बनाई.
आडवाणी ने राजनीतिक रूप से खुद को कमजोर करने की राह खुद चुनी चाहे वह जिन्ना की मज़ार पर जाने का मामला हो या फिर सोनिया पर आरोप लगाने के बाद माफी मांग लेने का मामला हो. 2013 में आडवाणी ने मोदी की उम्मीदवारी का खुला विरोध किया. उनके करीबियों ने बयानबाजी की , राह में रोड़े अटकाए. इसके बाद भी गुरु शिष्य परंपरा का हवाला देना हास्यास्पद ही लगता है.
लिहाजा आडवानी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. जिसे भारतीय राजनीति में अप्रत्याशित कहा जाएगा. न ही कोई परंपरा टूटी है.
और अंत में, जनसंघ के नेता रहे बलराज मधोक की कहानी भी बहुत से लोगों के जेहन में होगी. कहा जाता है कि उन्हें राजनीतिक रूप से ताकतवर नेता को किनारे करने के पीछे भी लालकृष्ण आडवाणी का हाथ था.