‘घरवापसी’ अजीत भारती की दूसरी किताब है। उनकी पहली किताब ‘बकर पुराण’ हिन्दी हास्य-व्यंग्य की किताबों में दो साल से एमेज़ॉन डॉट कॉम पर प्रथम स्थान पर रही है। हास्य-व्यंग्य से विस्थापन की कहानी वाले गम्भीर कथानक के साथ उन्होंने इस पुस्तक में अपनी लेखनी के विस्तार से परिचय कराया है। स्वयं भी शिक्षा और बेहतर भविष्य की तलाश में, बेगूसराय के रतनमन बभनगामा गाँव से निकलकर, सैनिक स्कूल तिलैया, और उसके बाद दिल्ली तक जाने वाले अजीत भारती तमाम विस्थापित युवाओं की मनोदशा इस किताब के ज़रिए बताते हैं।
मूल तौर पर इस उपन्यास में दो विषय हैं: विस्थापितों का अंतर्द्वंद्व, और एक बच्चे का ‘तुम क्या बनना चाहते हो’ जैसे सवाल का जवाब ढूँढना। लेखक ने ये बख़ूबी बताया है कि बिहार जैसे राज्यों के स्कूल में पढ़ते बच्चे अपने लक्ष्यों को पाने के लिए कितने सजग होते हैं। साथ ही, ये भी कि हर बच्चा शायद इस बड़े सवाल का उत्तर देने में सक्षम नहीं होता। बचपन की मानसिक अस्थिरता, कभी एक लक्ष्य बनाना, कभी दूसरा, और उसी के पीछे विचित्र हरकतें करना, इस पुस्तक में बेहतर तरीक़े से निकलकर आता है।
उपन्यास की पृष्ठभूमि में नब्बे के दशक के बिहार का गाँव है जिसे लेखक ने ऐसे उकेड़ा है मानो सामने में सारे दृश्य घटित हो रहे हैं। चाहे बचपन में की जाने वाली शरारतें हों, या फिर छठ महापर्व का विस्तृत वर्णन, लेखक का उसी समाज से होना कथानक को जीवंत बना देता है। गाँव की कुरीतियों, शिक्षा व्यवस्था आदि पर पात्रों में हो रही लगातार चर्चा बेहतर भविष्य की ओर इशारा करते हैं।
पात्रों पर काफ़ी मेहनत की गई है। रवि का बचपन और जवानी दोनों ही अंतरिक्ष संवाद और बाह्य संघर्ष में बीतता दिखता है। उसके संवादों के ज़रिए पाठक उसकी वेदना और अंतर्द्वंद्व तक पहुँच सकते हैं। लगातार अपने भविष्य को लेकर चिंतित और भविष्य बेहतर होने के बाद गाँव की चिंता में फँसा व्यक्तित्व बेहतरीन तरीक़े से बाहर आता है।
मास्टरजी, रवि के पिता डॉ विवेकी राय, एक आदर्शवादी पिता होने के साथ ही सुलझे हुए व्यक्ति के रूप में नज़र आते हैं। गाँव को लेकर उनकी चिंता और ग्रामीण लोगों के बीच उनका आदर देखकर लगता है कि समाज या जाति या गाँव सामूहिक स्तर पर बुरा नहीं होता, उनके भीतर रहने वाले नकारात्मक हो सकते हैं, लेकिन मूलतः किसी भी बदलाव लाने वाले को अंततः सफलता ही मिलती है। उसको सामाजिक रूप से स्वीकार लिया जाता है, और लोग बदलाव देखने पर सहयोग देने लगते हैं।
स्त्री पात्र काफ़ी सशक्त हैं। माताजी भले ही घर में रहती हों पर निरक्षर ब्याहता का दिनकर की पंक्तियाँ सुनाना और सीखने की ललक देखकर एक आशा दिखती है। सायकिल पर बैठकर अकेली ट्यूशन को शहर जाती लड़की हो, अपने नशेड़ी पति की अवहेलना करती चुन्नू की माँ हो, या मंजरी का मनचलों को चप्पल से पीटकर गाँव के सामने ज़लील करना, स्त्री पात्रों में ग़ज़ब की जीवटता दिखाई गई है।
‘बकर पुराण’ के बाद ‘घरवापसी’ के गम्भीर कथानक में भी लेखक के हास्य-व्यंग्य का पुट बार-बार बब्बन जैसे मसखरे पात्र के ज़रिए मिल जाता है। बालसुलभ हास्य किताब के काफ़ी हिस्से में है क्योंकि बचपन के समय की शरारतों, बहकाने संवादों और अनजान सवालों पर लेखक ने काफ़ी मेहनत की है।
‘घरवापसी’ से उन तमाम लोगों को एक स्थिरता मिलेगी जो घर से दूर हैं। उन्हें ये भान होगा कि उनका सवाल सिर्फ़ उनका ही नहीं, बल्कि एक पीढ़ी का है। एक आत्मीयता का अहसास लेकर विस्थापितों की कहानी कहते हैं अजीत भारती। युवावर्ग के लिए उनके सवालों के जवाब हैं, और गाँव के लोग इसमें नब्बे के दशक के गाँव की महक सूँघ सकते हैं। ग्रामीण परिदृश्य पर, उनकी आशाओं पर, उनकी कुरीतियों, और समस्याओं पर पिछले कुछ दशक से हिन्दी साहित्य में सुखाड़ पड़ा था जिसे ये पुस्तक नम करती प्रतीत होती है।
पुस्तक का नाम: घरवापसी
लेखक: अजीत भारती