नीतीश कुमार के भारतीय जनता पार्टी में जाने के बाद से विपक्ष के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों के लिहाज से विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई है. जब तक बिहार के मुख्यमंत्री भाजपा के पाले में नहीं थे, तब तक उन्हें विपक्ष का सबसे भरोसेमंद चेहरा माना जा रहा था. कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष को लग रहा था कि नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू यादव मिलकर बिहार में भाजपा को 2014 वाली कामयाबी नहीं हासिल होने देंगे. लेकिन अब स्थिति बदल गई है.
नीतीश और लालू के 2015 विधानसभा चुनावों के सफल प्रयोग से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को भी एक साथ लाने की कोशिशें हो रही थीं. माना जा रहा था कि अगर धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार और लालू यादव मिलकर भाजपा को पटखनी दे सकते हैं तो फिर यही काम करने के लिए मायावती और मुलायम सिंह यादव को भी अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए. दोनों दलों के बीच गठबंधन की कोशिशें हो रही थीं.
ये कोशिशें अब भी चल रही हैं. सही मायने में कहें तो विपक्ष के पास 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का मुकाबला करने के लिए यही आखिरी विकल्प बचा दिखता है. 2014 में उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल को कुल 80 में से 73 लोकसभा सीटें मिली थीं. भले ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपने बूते भारी बहुमत मिल गया हो, लेकिन अब भी राजनीतिक जानकार यह मान रहे हैं कि अगर सपा और बसपा एक हो गए तो भाजपा के लिए 2014 वाला प्रदर्शन दोहरा पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा.
विपक्ष की आखिरी उम्मीद यही है कि देश के सबसे बड़े राज्य में धुर विरोधी रहे दो दल एक हो जाएं तो भाजपा का 73 का आंकड़ा बमुश्किल दोहरे अंकों में पहुंचेगा. अगर भाजपा को वाकई इतना नुकसान हो जाता है तो फिर केंद्र में नरेंद्र मोदी की वापसी असंभव तो नहीं, लेकिन थोड़ी मुश्किल जरूर हो जाएगी. हो सकता है कि भाजपा का पूर्ण बहुमत नहीं रहे और नरेंद्र मोदी को सरकार चलाने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर रहना पड़े.
मुश्किलें
सपा, बसपा और कांग्रेस समेत कुछ और छोटे दलों के गठबंधन की उत्तर प्रदेश में बहुत संभावनाएं जरूर हैं, लेकिन इसकी मुश्किलें भी कम नहीं हैं. सबसे मुश्किल काम है सपा और बसपा को एक साथ लाना. हालांकि, दोनों दल और उनके नेता भाजपा की ओर से एक ही तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, फिर भी दोनों का साथ आना आसान नहीं है. जब भी इन दोनों दलों के साथ आने की बात होती है तो गेस्टाहाउस कांड की चर्चा होती है जिसमें मायावती पर सपा के लोगों ने जानलेवा हमला कर दिया था.
फिर भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो यह मान रहे हैं कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए सपा और बसपा एक साथ आ सकते हैं. इसमें भी यह कहा जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाली सपा के मुकाबले अखिलेश यादव की अगुवाई वाली सपा के साथ बसपा और मायावती ज्यादा सहज रहेंगे.
एक तरह से देखा जाए तो यही इस गठबंधन की सबसे बड़ी बाधा भी है. क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में हार के बाद सपा में अभी सत्ता संघर्ष का एक और दौर अपेक्षित है. मुलायम परिवार के अंदर पार्टी पर कब्जे के लिए जो कलह चुनावों के कुछ महीने पहले शुरू हुई थी, उसने अभी अंतिम रूप नहीं लिया है. कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश बसपा के साथ जाने को लेकर अधिक इच्छुक हैं.
बाधा बस एक नहीं
संभावित गठबंधन की एक और बड़ी बाधा है और यह है सपा-बसपा नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप. मायावती के खिलाफ कई मामले चल रहे हैं. मोदी सरकार पर विपक्ष लगातार यह आरोप लगा रहा है कि वह अपने राजनीतिक फायदे के लिए विपक्षी नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों का इस्तेमाल हथियार की तरह कर रही है. अगर यह सच है तो फिर सपा-बसपा की नजदीकी बढ़ने पर मोदी सरकार अपनी एजेंसियों का इस्तेमाल मायावती के खिलाफ करके इस संभावित गठबंधन को रोकने की कोशिश कर सकती है. बिहार में लालू और नीतीश का गठबंधन तुड़वाने का आरोप भी भाजपा पर यह कहते हुए लगाया जा रहा है कि उसकी सरकार ने केंद्र की एजेंसियों का इस्तेमाल लालू के खिलाफ किया. अगर वाकई केंद्र सरकार ने ऐसा किया है तो फिर वह अपना राजनीतिक समीकरण गड़बड़ाते देख मायावती को क्यों छोड़ेगी! इसी तरह मुलायम सिंह यादव और सपा के कई अन्य नेताओं के खिलाफ भी कई मामले हैं जिनका वक्त पड़ने पर राजनीतिक इस्तेमाल करने की आशंका बनी रहेगी.
भाजपा की घेराबंदी
अब ऐसे में देखना होगा कि सपा और बसपा के नेता नए गठबंधन या यों कहें कि मोदी-शाह का मुकाबला करने के लिए कितना प्रतिबद्ध हैं और इसकी कितनी कीमत चुकाने को तैयार हैं. इस गठबंधन की संभावनाओं के बीच ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने अभी से ही इसके खिलाफ घेराबंदी शुरू कर दी है. इस मामले में एक अहम संकेत तब मिला जब अखिलेश के करीब माने जाने वाले उनके चाचा रामगोपाल यादव ने अपने संसदीय जीवन के 25 साल पूरे किए. इस मौके पर आयोजित कार्यक्रम में खुद प्रधानमंत्री मोदी गए. इसकी व्याख्या यह कहकर की जा रही है कि रामगोपाल से अच्छे संबंध रखकर नरेंद्र मोदी संभावित महागठबंधन को रोकने की दिशा में प्रयास कर सकते हैं. कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ आ सकते हैं तो जरूरत पड़ने पर अखिलेश यादव ऐसा क्यों नहीं कर सकते! हालांकि, हाल-फिलहाल इसकी संभावना बहुत कम दिख रही है लेकिन राजनीति में इस तरह की चीजें होती रही हैं.
संभावित गठबंधन से निपटने की दूसरी परोक्ष कोशिश अमित शाह के स्तर पर दिख रही है. कहा जा रहा है कि उनकी शह पर बसपा से निकले नेताओं ने मायावती का आधार खिसकाने के लिए नया गठबंधन बनाकर काम करना शुरू किया है. इन नेताओं की योजना है कि मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाई जाए. दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुस्लिमों के बीच काम करने की योजना वाले इस अभियान की अगुवाई कभी मायावती के खासमखास रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी कर रहे हैं. उनके साथ बसपा के पूर्व सांसद प्रमोद कुरील भी जुड़े हुए हैं. इन लोगों ने मिलकर राष्ट्रीय बहुजन गठबंधन बनाया है.
राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने वाली मायावती के खिलाफ इस अभियान को राजनीतिक लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा है. इस साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मायावती की बसपा को भले ही 19 सीटें मिली हों लेकिन वोटों में उनकी हिस्सेदारी समाजवादी पार्टी से अधिक है. बसपा को 22.2 फीसदी वोट मिले हैं. यह सपा को मिले वोटों से आधा फीसदी अधिक है. इसका मतलब यह हुआ कि मायावती के पास अब भी एक मजबूत वोट बैंक है. अगर किसी चुनाव में उन्होंने कोई समझदारी वाला गठबंधन कर लिया तो एक बार फिर से वे देश के सबसे बड़े सूबे में ताकतवर होकर उभर सकती हैं. जाहिर है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में समझदारी वाले गठबंधन से तात्पर्य सपा और कांग्रेस के साथ आने से है.
माना जा रहा है कि अमित शाह की शह पर जो नई पहल मायावती के खिलाफ हो रही है, वह इसी डर की वजह से हो रही है. खुद नए गठबंधन के नेता मान रहे हैं कि भाजपा नेता उनके संपर्क में हैं, लेकिन वे खुद भाजपा के साथ नहीं जाना चाहते. भाजपा को यह लगता है कि अगर मायावती के वोट बैंक को और कमजोर कर दिया गया तो उनके लिए दोबारा उठ खड़ा होना बेहद मुश्किल होगा. पार्टी को उम्मीद है कि अगर यह पहल रंग लाती है कि इसका सीधा फायदा उसे 2019 के लोकसभा चुनावों में मिल सकता है.
नए गठबंधन के नेता उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर जाकर बसपा कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़ने का अभियान शुरू करने वाले हैं. इन्हें लगता है कि जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं का मायावती से मोहभंग हुआ है और ऐसे में वे इनके साथ जुड़ सकते हैं. अब यह देखना रोचक होगा कि मायावती इस नई पहल का मुकाबला करने के लिए क्या करती हैं.
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में संभावित महागठबंधन बनाना न सिर्फ मुश्किल काम लग रहा है बल्कि अगर यह बनता भी है तो भी इसके लिए आगे की राह बेहद आसान नहीं होगी. खास तौर पर चुनाव मैदान से बाहर के राजनीतिक संघर्ष में.