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Sunday, September 8, 2024

सहारनपुर पर मायावती ने मौका गंवा दिया

 

नई दिल्ली , एजेंसी। सहारनपुर की जातिगत हिंसा से चर्चा में आए भीम आर्मी को लेकर भाजपा और बसपा के बीच चले बयानों का विष्लेषण मौजूदा राजनीतिक माहौल के यथास्थितिवादी पहलू को समझने के लिए अहम है।
गौरतलब है कि भाजपा ने भीम आर्मी जिसने दलितों पर राजपूत संगठनों के हमलों के खिलाफ प्रदर्शन किया था, पर बसपा और मायावती से सम्बंध होने का आरोप लगाया था। इसके साक्ष्य के बतौर खुफिया एजेंसियों की एक गोपनीय रिपोर्ट को आधार बताया गया जिसमें भीम आर्मी और मायावती के भाई आनंद कुमार के बीच सम्बंध और पैसों की फंडिंग का जिक्र किया गया।
इस खबर के आने के दौरान सहारनपुर गईं मायावती ने भाजपा के इस आरोप का खंडन करते हुए कहा कि उनका और उनके भाई का या किसी भी बसपा नेता का भीम आर्मी से कोई सम्बंध नहीं है और भीम आर्मी को खुद भाजपा संचालित कर रही है।
हालांकि यहां यह ध्यान रखना जरूरी होगा कि एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार में खुफिया विभाग के एक बड़े अधिकारी ने ऐसी किसी भी खुफिया जांच रिपोर्ट के वजूद को ही बकवास बता दिया। यानी यह पूरी कवायद सिर्फ बसपा पर दबाव बनाने के लिए की गई थी, जिसमें मायावती फंस भी गईं।
भीम आर्मी को लेकर भाजपा और बसपा के वाकयुद्ध और इसे एक दूसरे का समर्थित संगठन बताने से दो अहम राजनीतिक संदेष प्रेषित होते हैं। पहला, ये दोनों ही पार्टियां किसी भी नए दलित आंदोलन को उसकी स्वयत्तता के साथ स्वीकार नहीं करना चाहतीं। दूसरे, ऐसा करके बसपा यह साबित भी करना चाहती है इस राजपूत या सवर्ण विरोधी संगठन से उसका कोई सम्बंध नहीं है और दलितों पर हमले का बदला लेने वाली भीम आर्मी को खुद भाजपा चला रही है।
यानी भले ही मायावती सहारनपुर में पीड़ित दलितों से मिलने पहुंची हों लेकिन बसपा यहां भाजपा से दलितों पर हमलावर राजपूत संगठन के साथ खड़े होने की होड़ में हैं।
इस तरह ये दोनों ही संदेश जहां राजनीतिक यथास्थितिवाद के पक्ष में खड़े होते हैं वहीं भाजपा की केंद्र और राज्य दोनों ही जगह सरकार बनने से सवर्णों के पक्ष में झुके सामाजिक संतुलन को ही मजबूत भी करते हैं। यहां बसपा किसी भी कीमत पर अपने को सवर्ण विरोधी या जिसे वो सर्वजन कहती है, के खिलाफ नहीं दिखना चाहती। यह एक तरह से मौजूदा समय में हिंदुत्व की वर्चस्वशाली राजनीतिक डिस्कोर्स पर किसी भी तरह से संदेह न व्यक्त करने की बसपा की कोशिश को दिखाता है।
इस तरह इस पूरी बहस में बसपा, अपने अतीत के आईने में और दलितों की बहुत स्वाभाविक पार्टी होने के बावजूद भी ‘धारणा’ (परसेप्शन) के युद्ध में भाजपा से हार ही नहीं गई है बल्कि उसने अपनी इस सीमा को भी उजागर कर दिया है कि विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार, जिसका मुख्य कारण दलितों के एक बड़े हिस्से का भाजपा की तरफ चला जाना था, के बावजूद वो अपने समाज के सामंती यथास्थितिवाद को चुनौती देने की आंकाक्षा की राजनीतिक वाहक बनने को नहीं तैयार है। इस तरह हम कह सकते हैं कि दलितों के आक्रोश के कारण अनुकूल माहौल के बावजूद बसपा ने सहारनपुर के जरिए मिले मौके को गंवा दिया है। अगर वह भीम सेना के पक्ष में एक बयान भी दे देतीं या कम से कम उसकी आलोचना नहीं करतीं तो स्थितियां उनके पक्ष में होतीं।
दरअसल, इस घटनाक्रम में हमें यह भी याद रखना होगा कि हिंदुत्ववादी वैचारिकी को चुनौती देने वाली भीम आर्मी से किनारा कसने से ठीक पहले बसपा ने अपने सबसे पुराने नेताओं में से एक और पार्टी के मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को भी पार्टी से निकाल दिया था। बसपा कैडरों में इसे इस आधार पर उचित बताया गया कि नसीमुद्दीन के कहने पर ही मायावती ने लगभग 100 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे जिससे पार्टी की छवि मुस्लिम परस्त की बन गई थी। हालांकि बाहरी तौर पर इसे भ्रष्टाचार का जामा पहनाने की कोशिश की गई, लेकिन बसपा में भ्रष्टाचार भी कोई मुद्दा है यह शायद ही कोई माने।
अगर हम नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर बसपा को मुस्लिम परस्त पार्टी बनाने के आरोप और हिंदुत्व को चुनौती देने वाली भीम आर्मी पर बसपा के स्टैंड को एक कड़ी में जोड़ कर देखें तो इससे बसपा की मौजूदा वैचारिक दिशा और स्पष्ट हो जाती है। बसपा किसी भी तरह अपने को हिंदुत्व के वृहत दायरे से अलग नहीं दिखाना चाहती है। उसे डर है कि अगर वह कहीं से भी सवर्ण-सामंती गठजोड़ की विरोधी और मुसलमानों की हितैषी दिखेगी तो वह अप्रासंगिक हो जाएगी। पहली स्थिति में जहां उसे सवर्ण हिंदुओं का वोट नहीं मिलेगा जिसे उसने 2007 में सम्भव बना लिया था तो वहीं दूसरी स्थिति में उसे मुस्लिम विरोधी मानसिकता से ग्रस्त दलितों का ही वोट नहीं मिलेगा।
दरअसल बसपा अभी भी नहीं समझ पायी है कि रोहित वेमुला से लेकर उना आंदोलन के बाद दलितों में भाजपा के खिलाफ पैदा हुए राष्ट्रव्यापी आक्रोश के बावजूद अगर दलितों ने उसे यूपी में वोट नहीं दिया तो उसकी एक बड़ी वजह ऐसी घटना

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