एजेंसी: ऊपर लगी तस्वीर को ध्यान से देखिए. अगर आप राजनीति में ज़रा भी रुचि रखते हैं तो आपने ‘लोकदल’ नाम कि पार्टी का नाम ज़रूर सुना होगा. हो सकता है आपने ‘हल जोतता हुआ किसान’ (जिसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘खेत जोतता हुआ किसान भी कहते हैं’) वाले चुनाव निशान को भी देखा सुना हो.
लेकिन लोकदल के बैनर नजर आ रहे व्यक्ति को आप शायद ही जानते होंगे. गौर कीजिए कि बैनर पर बिल्कुल बीच में मुलायम सिंह यादव की तस्वीर लगी है. आखिर ये माजरा है क्या? इस व्यक्ति का दावा है कि बेटे द्वारा पार्टी में किनारे कर दिए जाने के बाद अब मुलायम सिंह यादव लोकदल के नए अध्यक्ष होने वाले हैं और उनके तमाम उम्मीदवार अब इसी चुनाव चिन्ह ‘हल जोतता हुआ किसान’ को लेकर वोटरों के बीच जाएंगे. इस शख्स के दावे में कितनी सच्चाई है और यह साहब हैं कौन? ये बताने से पहले ‘लोकदल’ के बारे में जानना जरूरी है.
‘लोकदल’ की कहानी जानने के लिए अगर आप गूगल सर्च करेंगे तो आपको हर जगह ‘राष्ट्रीय लोक दल ‘ ही दिखेगा जिसके नेता चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह हैं. राष्ट्रीय लोकदल से अखिलेश यादव के गठबंधन की बात चल रही है. लेकिन अब बाप-बेटे की राहें जुदा हैं इसलिए यह कहानी भी अजीत सिंह वाले ‘राष्ट्रीय लोकदल’ की नहीं हो सकती.
लोकदल की कहानी शुरू होती 1974 में जब चौधरी चरण सिंह ने ‘भारतीय लोकदल’ के नाम से अपनी पार्टी बनाई थी. तब इसका चुनाव निशान ‘हलधर किसान’ था. इमरजेंसी के बाद 1977 में इंदिरा गांधी का मुकाबला करने के लिए कई नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टियों का विलय कराकर जनता पार्टी बनाई. कई पार्टियों को मिलाकर बनाई गई जनता पार्टी का चुनाव निशान भी हलधर किसान बना. 1977 में कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई. मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री भी बने.
लेकिन 1980 में आपसी मतभेदों के कारण जनता पार्टी टूट गई और चौधरी चरण सिंह भी उससे अलग हो गए. अब उन्होंने जो पार्टी बनाई उसका नाम ‘लोकदल’ था और चुनाव निशान था ‘हल जोतता हुआ किसान’. लोकदल नाम कि ये पार्टी 1987 में चौधरी चरण सिंह के देहांत तक ठीक से चलती रही. एक समय देवीलाल, नीतीश कुमार, बीजू पटनायक, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव भी इसी लोक दल के नेता होते थे.
1984 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी के सिर्फ दो सांसद थे तब लोकदल के चार सांसद होते थे. लेकिन चौधरी चरण सिंह के देहांत के बाद लोकदल पर कब्जे की लड़ाई छिड़ गई. कुछ दिनों तक हेमवती नंदन बहुगुणा इसके अध्यक्ष रहे. लेकिन बाद में समाजवादी पार्टी के लड़ाई की तरह यह लड़ाई भी चुनाव आयोग पहुंच गई.
उस समय भी पार्टी पर दावा करने वालों में खुद चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह भी शामिल थे. लेकिन 2000 में चुनाव आयोग ने फैसला सुनाया कि अजीत सिंह बेटे होने के नाते चरण सिंह की संपत्ति के वारिस तो हो सकते, मगर पार्टी की विरासत उन्हें नहीं मिल सकती.
तब अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोक दल नाम की अपनी अलग पार्टी बना ली जिसे वह अभी भी चला रहे हैं. इधर असली ‘लोकदल’ लंबी कानूनी लड़ाई के बाद पहुंच गई अलीगढ़ के जाट नेता चौधरी राजेंद्र सिंह के हाथों में जो एक समय इस पार्टी के कद्दावर नेता थे. वो इसी पार्टी से उत्तर प्रदेश में मंत्री भी रहे और 1980 से 1985 तक विधानसभा में नेता विरोधी दल भी रहे. उनके साथ ही 1982 से 1985 तक मुलायम सिंह यादव इसी लोकदल की तरफ से विधान परिषद में नेता विपक्ष रहे.
लोकदल के बैनर पर चौधरी चरण सिंह के साथ मुलायम सिंह की फोटो लगाए बैठे शख्श उन्हीं राजेंद्र सिंह के बेटे हैं जो पिता के देहांत के बाद किसी तरह से लोकदल का नाम और चुनाव चिन्ह अपने पास बनाए हुए हैं. सुनील सिंह एक बार उत्तर प्रदेश के विधान परिषद सदस्य रह चुके हैं लेकिन उसके बाद हर चुनाव हार गए.
आज के दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोकदल की कोई हैसियत नहीं है. चुनाव आयोग की लिस्ट में लोकदल उत्तर प्रदेश की एक Unrecognized पार्टी के तौर पर दर्ज है. लेकिन सुनील सिंह के पास दो पूंजी है- एक लोकदल जैसी ऐतिहासिक पार्टी का नाम और दूसरा उसका चुनाव चिन्ह जिस पर खुद मुलायम सिंह यादव 1980 और 1985 में दो बार जसवंतनगर से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं.
चौधरी चरण सिंह की विरासत के नाम पर लोक दल को जिंदा करने की फिराक में सुनील सिंह जाने कब से थे लेकिन मौका नहीं मिल रहा था. जब समाजवादी पार्टी में बेटे और बाप के बीच ठन गई तो सुनील सिंह को वो मौका दिखा जिसकी तलाश में वो बरसों से थे.
जैसे ही अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मुलायम सिंह यादव से छीना, वह फौरन नेताजी के पास पहुंच गए. उन्होंने मुलायम सिंह यादव से कहा कि वो आएं और लोकदल के अध्यक्ष के तौर पर काम संभालें. इस बारे में वह शिवपाल यादव से भी बात कर चुके हैं. सुनील सिंह का दावा है कि मुलायम और शिवपाल दोनों ने इस बारे में विचार करने का भरोसा दिया है. लेकिन आखिरी फैसला वो तब करेंगे जब साइकिल चुनाव निशान उनसे छिन जाता है. रविवार को उन्होंने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके यह बात मीडिया को बताई.
तो क्या सचमुच बेटे से मुकाबला करने के लिए मुलायम सिंह अपनी पुरानी पार्टी लोकदल की कमान संभालेंगे? क्या उनके उम्मीदवार हल जोतता हुआ किसान चुनाव चिन्ह को लेकर वोटरों के बीच जाएंगे. मुलायम सिंह के लोग इस बारे में अभी खामोश हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अभी ऐसी चर्चा से समाजवादी पार्टी और साइकिल चुनाव निशान पर उनका दावा कमजोर दिखेगा.
लेकिन जब सुनील सिंह से पूछा गया कि लोकदल के नाम से तो लोगों को उसी राष्ट्रीय लोक दल का ध्यान आता है जिसके साथ अखिलेश यादव गठबंधन कर रहे हैं. इस सवाल पर सुनील सिंह हंसते हुए कहते हैं कि वह अपने पोस्टरों में अजीत सिंह की फोटो लगाकर यह भी लिखेंगे- ‘नक्कालों से सावधान! असली पुरानी दुकान यही है’.