नई दिल्ली। महज तीन महीने पहले ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सत्ता खत्म हुई और अब बिहार सरकार से लालू प्रसाद यादव का बाहर होना यह संकेत दे रहा है कि लंबे समय से हिंदी बेल्ट पर अपना दबदबा रखने वाले यादवों का वर्चस्व अब खत्म होता जा रहा है।
साल 2015 में बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने से जब लालू की सत्ता में वापसी हुई थी, उस समय उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव अपना आधे से ज्यादा कार्यकाल पूरा कर चुके थे। दोनों पड़ोसी राज्यों में 120 लोकसभा सीटें हैं। इन दोनों ही राज्य के मुखिया के पदों पर यादवों का दबदबा होने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में दोबारा जनता दल के दिनों को याद किया जा रहा था।
हालांकि, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की हार और बिहार में गठबंधन में आई दरार ने ‘सेक्युलर’ कैंप की उम्मीदों पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। मार्च में बीजेपी ने राज्य की पार्टियों के साथ ही मुलायम सिंह यादव और बीएसपी चीफ मायावती जैसे दिग्गजों का सूपड़ा साफ कर दिया और सत्ता पर काबिज हो गई।
बीजेपी की जीत क्षेत्रिय पार्टियों के लिए बहुत बड़ा झटका तो थी लेकिन उस समय भी सबकुछ खत्म नहीं हुआ था क्योंकि बिहार में लालू कायम थे। सत्ता में आने के 17 महीने बाद ही जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस बार-बार यह दावा कर रही थी कि महागठबंध सुरक्षित है और कम से कम 2019 के आम चुनावों तक यह गठबंधन बना रहेगा। लेकिन आरजेडी-जेडीयू के बीच बढ़ती दूरियों ने राजनीतिक गलियारों में भूचाल ला दिया।
ऐसा माना जा रहा है कि यादवों का वर्चस्व खत्म होने से अब हिंदी बेल्ट में नई तरह की ओबीसी राजनीति शुरू हो सकती है। बीजेपी ने अन्य पिछड़ा जाति वर्ग को ही कई धड़ों में बांटने की नीति पर काम करना शुरू किया, इसी नीति से यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी को भारी जीत भी दिलाई।
इससे पहले बिहार में जेडीयू के साथ सत्ता मिलने के दौरान भी बीजेपी अति पिछड़ा और अति दलित के नाम पर यही नीति अपना चुकी थी। इसके तहत राज्य में विकास योजनाओं को गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव पासवान दलितों पर केंद्रित किया गया था। हालांकि, नीतीश के बीजेपी से नाता तोड़ने और लालू के साथ हाथ मिलाने के बाद यह इस नीति पर आगे काम नहीं किया गया।
हालांकि, अब जब बिहार की राजनीति फिर से महागठबंधन के पहले के दिनों में जा पहुंची है तो ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन इस पुरानी नीति पर भी काम करेगा।