लखनऊ,दीपक ठाकुर।इस बार के उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव और 2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को छोड़ कर अन्य दल अर्श से फर्श पर आ गए थे शायद यही कारण है कि अपने सिम्बल की ताकत आंकने के लिए सपा के बाद अब बसपा ने भी निकाय चुनाव पार्टी सिम्बल पर लड़ने का फैसला कर लिया है।
हालांकि पहले ये चुनाव पार्टी सिम्बल पर ही लड़ा जाता था मगर बीच मे कुछ ऐसी हवा चली की पार्टियों ने निकाय चुनाव के लिए अपना सिम्बल देना ही बंद कर दिया वजह शायद ये होगी कि पार्टियों की नज़र में निकाय चुनाव वो मायने नही रखते जो विधान सभा और लोक सभा के चुनाव रखते हैं। पर इस बार अपने खिसकते जनाधार को बचाने या यूं कहें कि उन्हें समेटने के लिए सपा बसपा ने सिम्बल पर ही विश्वास जताना बेहतर विकल्प समझा है।वैसे भी अभी तक देखा यही गया है कि जो पार्टी सत्ता में रहती है या मज़बूती के साथ विपक्ष की भूमिका में रहती है उस पार्टी के सिम्बल को पाने के लिए निकाय चुनाव में उतारने वालों के लिए खासी अहमियत होती है और वो हर तरह से सिम्बल को पाने का प्रयत्न भी करते हैं ये भी कहने में कोई बुराई नही है कि कई पार्टियां अपना सिम्बल ऊंचे दामों पर बेचने का भी काम करती है।
अब इस बार के उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव और भी रोचक होंगे ऐसी आशा की जा सकती है क्योंकि सिम्बल से मिली जीत किसी की उम्मीदों को बरकार रखने का काम कर सकता है तो किसी को सिम्बल बदलने के लिए मजबूर भी कर सकता है साथ ही ये भी एहसास करा सकता है कि चुनाव सिम्बल से नही बल्कि व्यक्ति विशेष के योगदान और जीवन शैली से जीते जाते हैं।