न्यूज़ वन इंडिया-दीपक ठाकूर,लखनऊ। लखनऊ के ट्रामा सेंटर में चिकित्सा व्यवस्था दुरुरुत हो और हर बीमार व्यक्ति को उचित स्वाथय सेवा मोहैया कराई जाए इसी उद्देश्य को लेकर केजीएमयू और ट्रामा सेंटर की स्थापना की गई होगी साथ ही ये भी कहा गया था कि यहां अमीरी गरीबी और समय सीमा की कोई बाध्यता नही होगी मतलब चिकित्सा का लाभ सभी को बराबर मिलेगा और 24 घण्टे कभी भी इस लाभ को ले कर स्वास्थ को दुरूरस्त किया जाएगा यही कारण भी है कि राजधानी के इसी अस्पताल में मरीजों की भारी भीड़ लगी होती है और एक विश्वास भी होता है कि यहां आने से उनका कष्ट दूर हो जाएगा।
पर ऊपर बताई गई तमाम बातें ऐसी हैं जिनका वात्त्विकता से कोई लेना देना नही है और ये बात वो भली भांति जानता है जो इस अस्पताल में या तो इलाज करवा रहा होता है या करवा चुका होता है।शहर की घनी आबादी के बीचों बीच बने इस भव्य अस्पताल में इमरजेंसी के नाम पर छलावा क्या होता है ये आपको तभी पता चलेगा जब आपको इसकी जरूरत होगी।
सबसे पहले तो आपको यहां पर इलाज के लिए भर्ती होने में नाको चने चबवा दिए जाएंगे अगर आपकी पहुंच किसी स्टाफ या अधिकारी तक नही है तो दूसरा अगर आप गंभीर हालत में यहां आते हैं तो भी आपको ऐसे ट्रीट किया जाएगा जैसे आप यहां इलाज के लिए नही उनसे भीख मांगने आये हों मतलब बाहर बैठो जब सारी फार्मेलटी पूरी कर लेंगे तभी सोचेंगे कि शुरू किया जाए या वापस भेजा जाए ये कह कर कि यहां जगह नही है कही और जा के दिखवा लो अपने मरीज़ को।और खुशकिस्मती से अगर आप यहां भर्ती हो गए तो यहां का स्टाफ आपका ऐसा ख्याल रखेगा जैसे कितना बड़ा एहसान कर रहा हो हमारे ऊपर।
स्टाफ का व्यवहार और उसकी कार्य शैली आपको हम अपनी आँखोदेखी बताते है हुआ ऐसा के अपने रिश्तेदार का इलाज कराने हम भी एक दिन इमरजेसी सेवा लेने ट्रामा सेंटर पहुंच गए बड़ी मुश्किल के बाद हमारे मरीज़ को दाखिला मिल गया सारा पेपर वर्क पूरा करने के बाद इमरजेसी के वार्ड A में एक बेड भी एलाट कर दिया गया इस पूरे क्रियाकलाप में लगभग 2 घण्टे का समय लगा तब तक मरीज़ बीमारी से खुद ही लड़ता रहा खैर उसके बाद घड़ी में रात के 11 बज रहे थे वार्ड में जूनियर डॉक्टर के साथ और भी दो स्टाफ था जो मरीज़ पर नज़र बनाये हुए था देख कर अच्छा लगा कि चलो यहां देखरेख अच्छी है अब थोड़ा हम आराम कर लें तो वही बेड के बगल में चादर डाल कर हम लेट गए तब घड़ी 12 बजा रही थी।थकान ज़्यादा होने की वजह से आंख भी जल्दी लग गई पर जब आंख खुली तो खुली ही नही बल्कि फटी की फटी रह गई वो इस लिए की देख रेख करने वाला स्टाफ वार्ड छोड़कर अपने शयन कच्छ जा चुका था जिससे वहां मौजूद सारे मरीज़ और उनके तीमारदार परेशान दिखाई दे रहे थे।
स्टाफ को जब हम खोजने निकले तो वहां उनका दरवाज़ा बंद था बाहर सो रहे स्वीपर ने बताया कि सब सो रहे हैं और वो खुद भी बाहर कुर्सी पर सो रहा था।फिर मरता क्या ना करता अपने मरीज़ का डॉक्टर खुद ही बना और समय समय पर खुद ही उनका बुखार और ब्ल्डप्रेशर नोट करने लगा।
अब घड़ी में सुबह के 5 बजे थे तो फिर से स्टाफ हरकत में आता दिखाई दिया और जूनियर डॉक्टर से लेकर स्वीपर तक सभी अपने काम मे भिड़ गये।ताज्जुब तो तब हुआ जब जूनियर डॉक्टर मरीजों के चार्ट पर अपने मन से उनका बीपी और बुखार लिखने लगे फिर वाकई लगने लगा कि ट्रामा सेंटर में इलाज नही छलावा ही होता है जो मरीज़ के लिए कई बार घातक भी साबित होता है।