लखनऊ, दीपक ठाकुर। विधायकी के चुनाव के वक़्त अक्सर आम जनता के ज़हन में यही सवाल हिलोरे मारता है कि कौन से उम्मीदवार को अपने क्षेत्र का विधायक बनाया जाए जो हमारे क्षेत्र का विकास करे? इसी सवाल के जवाब की तलाश में मतदाता तब तक उलझा रहता है जब तक चुनावी प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती और उसका उम्मीदवार जीत नहीं जाता पर अभी तक आम जनता की इस उधेड़बुन का कोई विकल्प निकला हो ऐसा उनकी समस्याओं को देख कर तो नहीं लगता।
विधायक जनता के वोट पाकर जीत तो जाते हैं पर जीत के बाद उनमे अक्सर ऐसा बदलाव दिखने लगता है जिससे जनता बड़ी आहत हो जाती है वो बदलाव ये होता है कि वोट मांगने के लिए जिन गलियों की वो ख़ाक छानते नहीं थकते थे उन्हें बाद में इतनी फुर्सत तक नहीं रहती की उन गलियों का पुरसाहाल लिया जाए अरे हाल तो छोड़िए वहां की वो जनता जिनका वोट पा कर उन्हें विधायकी मिली उससे मिलना तक गवारा नहीं समझते।
हम ऐसा नहीं कह रहे की हर विधायक की परिभाषा यही होती है पर हाँ इतना ज़रूर चाहते हैं कि हमारा विधायक ऐसा हो जो इस परिभाषा को बदल सके।
इन्ही सब बातों को लेकर आम जनता सोच के सागर में डूबी रहती है कि अबकी बार हम किसको अपना हमदर्द समझें जो समय पर हमारे लिए हमारे साथ हो।।।
एक और सबसे अहम बदलाव जो अक्सर विधायकों में देखा गया है वो ये की उनके अंदर द्वेष पूर्ण भावना जागृत हो जाती है विकास के लिए वो चयन करने लगते हैं कि उनको किसने वोट किया और किसने नहीं किया होगा और इसी को आधार बनाकर वो विकास कार्यों को अंजाम तक पहुंचाने की योजना बनाते है जो हमारे लिहाज से कतई ठीक नहीं है
जब आपको किसी क्षेत्र के विकास और क्षेत्र की जनता की समस्याओं को दूर करने का ज़िम्मा मिला हो तो उसमें इस तरह का भेदभाव करना कहाँ तक उचित है। आप जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं आपका कर्तव्य होना चाहिए की आप जिस तरह चुनाव के वक़्त अपने क्षेत्र में सक्रिय नज़र आते हैं चुनाव बाद भी आपकी कार्यशैली ऐसी ही हो ताकि जनता आपको चुनते वक़्त खुद से कोई सवाल ना कर सके।