दीपक ठाकुर,न्यूज़ वन इंडिया। नगर निकाय चुनाव 2017 में इस बार ऐसा कई वार्डों में देखने को मिला है कि वहां का पूर्व पार्षद पार्टी बदल कर या तो खुद मैदान में उतरा या उसके परिवार के किसी सदस्य को नई पार्टी के टिकट से चुनाव में अपना शक्ति परीक्षण करने को उतार दिया।अब बात ये आती है कि निकाय चुनाव में व्यक्तित्व को तरजीह दी जाती है या पार्टी के सिम्बल को तो जहां तक नेताओ की बात की जाए तो वो मानते हैं कि पार्टी सिम्बल से उनको बल मिलेगा मतलब वो पार्टी के बैनर तले ही अपनी जीत सुनिश्चित कर सकते है अगर ऐसा ना होता तो बरसो बरस सपा का दामन थाम कर चलने वाले बुक्कल नवाब खुद भापजा में ना शामिल हुए होते और इस बार के चुनाव में अपने शहज़ादे फैसल नवाब को भाजपा से पार्षदी का चुनाव ना लड़वाते।
खैर बुक्कल नवाब कोई पहला और आखरी नाम नही है जो इस तरह की राजनीती में विश्वास रखता हो आपको इस बार के निकाय चुनाव में ऐसे कई उम्मीदवार दिखे होंगे जो पूर्व में सपा से पार्षद नियुक्त हुए थे पर इस बार भगवा रंग में रंगे दिखाई दिए और उसी के नाम पर वोट भी मांगा।पुराने लखनऊ की तस्वीर तो कमोबेश ऐसी ही दिखाई दी जिसमे चेहरे पुराने पर पार्टी नई रही।
अब सारा दारोमदार जनता पर आ टिका के वो किसको अपना पार्षद चुनती है उसको जिसने उसके लिए काम किया या उसको जो बहती गंगा में हाथ धोने के लिए पार्टी तक छोड़ने को तैयार हो गया। वैसे जनता ने ये काम भी कर ही दिया है जो फिलहाल मशीनों में बंद है जिसका नतीजा आना अभी बाकी है पर हां कयास यही लग रहे है कि जनता ने पार्टी से ज़्यादा व्यक्ति विशेष को जिताने का काम किया है वोट उसी को दिया है जो काम करता है लेकिन अगर ऐसा वास्तव में हुआ होगा तो ना जाने कितने पूर्व पार्षदों के मंसूबे पर पानी फिर जाएगा जो दल बदल कर इस चुनावी समर में कूदे थे और अगर ऐसा नही हुआ तब तो उनका पैतरा उन्हें फिर से पार्षद की कुर्सी पर बैठा देगा।अब देखना दिलचस्प रहेगा के प्रदेश की जनता का क्या मूड रहा इस बार के मतदान में किसको चुना उसने अपने क्षेत्र के विकास की बागडोर देने में किसी अच्छे व्यक्तित्व को या बड़ी पार्टी के बैनर को।इंतज़ार ज़्यादा लम्बा नही पर रिजल्ट रोचक होगा ऐसा कहा जा सकता है।