उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से चुनावी सरगर्मी तेज हो गई है। अगले महीने नगर निकाय चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी तो दो लोकसभा सीटों पर भी उप−चुनाव का बिगुल बज गया है। यह सीटें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के इस्तीफे से रिक्त हुई हैं। गोरखपुर और फूलपूर लोकसभा सीटों पर चुनाव की आहट से जहां गैर भाजपाइयों को अपनी बल्ले−बल्ले नजर आ रही है, वहीं बीजेपी के लिये यह सीट पुनः जीतना प्रतिष्ठा का सवाल बना हुआ है। शुरू−शुरू में कयास लगाया जा रहा था कि फूलपूर लोकसभा सीट पर बीजेपी चुनाव नहीं चाहती है। इसकी वजह है यहां बीजेपी 2014 से पहले कभी जीत का स्वाद नहीं चख पाई थी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने विधान परिषद का चुनाव जीत लिया है। दोनों नेताओं को अपनी सीएम और डिप्टी सीएम की कुर्सी बचाये रखने के लिये 18 सितंबर से पहले विधान मंडल के किसी सदन का सदस्य बनना जरूरी था। विधान परिषद की सदस्यता पक्की हो जाने के बाद दोनों नेताओं ने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दिया है। शपथ ग्रहण के 14 दिनों के भीतर एक सदन की सदस्यता छोड़नी होती है। चूंकि लोकसभा में उनका कार्यकाल मई 2019 तक है इसलिए दोनों सीटों पर उप−चुनाव भी तय है।
गोरक्षपीठ से जुड़ी गोरखपुर लोकसभा सीट और नेहरू परिवार से जुड़ी होने के नाते फूलपुर सीट (इलाहाबाद) का ऐतिहासिक महत्व है। भाजपा इसे किसी भी हाल में अपने हाथ से निकलने नहीं देगी, क्योंकि इसके परिणाम 2019 के लोकसभा चुनाव की नींव मजबूत करेंगे। बात गोरखपुर लोकसभा सीट की कि जाये तो यहां बीजेपी को कोई परेशानी आयेगी, ऐसी उम्मीद किसी को नहीं है। बीजेपी को अपना पूरा ध्यान फूलपूर लोकसभा सीट पर लगाना है। वर्ष 1998 से गोरखपुर लोकसभा सीट पर योगी आदित्यनाथ जीतते चले आ रहे हैं जबकि उसके पहले 1989, 1991 और 1996 में इस सीट पर आदित्यनाथ योगी के धर्मगुरु महंत अवैद्यनाथ ने चुनाव जीता था। अवैद्यनाथ वर्ष 1970 में अपने गुरु महंत दिग्विजय नाथ के ब्रह्मलीन होने के बाद हुए उप−चुनाव में भी सांसद चुने गए थे।
गोरखपुर सीट मुख्यमंत्री योगी की प्रतिष्ठा से जुड़ी है इसलिए विपक्ष यहां कड़ी चुनौती पेश करना चाहता है लेकिन अभी तक हालात उसके अनुकूल नहीं लग रहे हैं। मायावती ने अभी तक अखिलेश यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का मन नहीं बनाया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विपक्ष बीजेपी को वॉक ओवर दे देगा। ऐन मौके पर विपक्ष भाजपा को घेरने के लिए कोई भी बड़ा कदम उठा सकता है। भाजपा ने इन सभी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए गोरखपुर के ब्राह्मण चेहरे शिव प्रताप शुक्ल को केंद्र में वित्त राज्य मंत्री बनाया है। इस सीट पर भाजपा की जीत के लिए शिव प्रताप की भी प्रतिष्ठा लगेगी।
जहां तक फूलपुर सीट की बात है तो 2014 में यहां भाजपा पहली बार जीती। नेहरू की विरासत वाली इस सीट पर समाजवादियों ने जरूर परचम फहराया लेकिन भगवा झंडा पहली बार केशव मौर्य की अगुआई में ही फहरा। केशव ने ऐतिहासिक जीत हासिल की थी और बीजेपी को एक बार फिर केशव जैसा चेहरा फूलपुर के लिए भी चाहिए। यहां से बसपा सुप्रीमो मायावती के भी चुनाव लड़ने की अटकलें लग रही हैं। ऐसा होता है तो सपा यहां के दंगल से किनारा कर सकती है। भाजपा इन दोनों सीटों के लिए समीकरण बनाने में जुट गई है।
बात फूलपूर सीट के मिजाज और इसे वीआईपी सीट का दर्जा मिलने की कि जाये तो जेहन में सबसे पहला नाम देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का ही आता है। नेहरू ने 1952 में पहली लोकसभा में पहुंचने के लिए इसी सीट को चुना। इसके बाद लगातार तीन बार 1952, 1957 और 1962 में उन्होंने यहां से जीत हासिल की थी। नेहरू के चुनाव लड़ने के कारण ही इस सीट को वीआईपी सीट का दर्जा मिला था। यूं तो फूलपुर से जवाहर लाल नेहरू का कोई खास विरोध नहीं होता था। वो आसानी से चुनाव जीत जाते थे लेकिन उनके विजय रथ को रोकने के लिए 1962 में प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया खुद फूलपुर सीट से चुनाव मैदान में कूद पड़े थे, हालांकि वो नेहरू को कोई खास चुनौती नहीं दे सके, लेकिन वह नेहरू की नजर में चढ़ जरूर गये। इसी लिये चुनाव हारने वाले लोहिया को नेहरू ने राज्यसभा पहुंचाने में मदद की। नेहरू का कहना था कि लोहिया जैसे आलोचक का संसद में होना बेहद जरूरी है।
नेहरू के निधन के बाद इस सीट की जिम्मेदारी उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने संभाली। उन्होंने 1967 के चुनाव में छोटे लोहिया के नाम से प्रसिद्ध जनेश्वर मिश्र को हराकर नेहरू और कांग्रेस की विरासत को आगे बढ़ाया। 1969 में विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बादइस्तीफा दे दिया। इसके बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने नेहरू के सहयोगी केशव देव मालवीय को उतारा लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जनेश्वर मिश्र ने उन्हें पराजित कर दिया। इसके बाद 1971 में यहां से पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए। इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने यहां से रामपूजन पटेल को उतारा लेकिन जनता पार्टी की उम्मीदवार कमला बहुगुणा ने यहां से जीत हासिल की। ये अलग बात है कि बाद में कमला बहुगुणा स्वयं कांग्रेस में शामिल हो गई थीं। पंडित नेहरू के बाद इस सीट पर लगातार तीन बार यानी हैट्रिक लगाने का रिकॉर्ड रामपूजन पटेल ने ही बनाया। 1996 से 2004 के बीच हुए चार लोकसभा चुनावों में यहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीतते रहे। 2004 में बाहुबली की छवि वाले अतीक अहमद यहां से सांसद चुने गए। अतीक अहमद के बाद 2009 में पहली बार इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी ने जीत हासिल की। जबकि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम यहां से पूर्व में चुनाव हार चुके थे।
इस दौरान सबसे दिलचस्प बात ये रही कि 2009 तक तमाम कोशिशों और समीकरणों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी इस सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकी। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच बीजेपी का यहां पहली बार खाता खुला। बीजेपी के केशव प्रसाद मौर्य ने बीएसपी के तत्कालीन सांसद कपिलमुनि करवरिया को पांच लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया था। बीजेपी के लिए ये जीत इतनी अहम थी कि पार्टी ने केशव प्रसाद मौर्य को इनाम स्वरूप प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया और फिर यूपी के डिप्टी सीएम तक बन गये।
फूलपूर की सांसदी छोड़ने वाले उप−मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य यहां बीजेपी की जीत को लेकर काफी आश्वस्त हैं। उनका कहना था हम काम के जरिये जीत हासिल करेंगे। लोक कल्याण संकल्प पत्र में किए वादों को सरकार शतप्रतिशत पूरा करेगी और विरोधियों के आरोपों का जवाब देगी। उन्होंने चुनाव से भागने के विपक्ष के आरोप पर पलटवार करते हुए कहा कि आने वाले दिनों में चुनावों में विरोधियों को बता दिया जाएगा कि कौन मैदान से भागता है और कौन पटखनी देता है। मौर्य का कहना था कि लगातार हार की खिसियाहट से विपक्षी दल उबर नहीं पा रहे हैं।