दीपक ठाकुर,न्यूज़ वन इंडिया।परिवारवाद शब्द राजनीतिक द्रष्टिकोण से काफी मशहूर हो गया है इसके लिये मुख्य रुप से कांग्रेस पार्टी को दोषी ठहराया जाता है मगर सिर्फ कांग्रेस में ही ऐसा है ये कहना भी गलत होगा।लोक सभा चुनाव और विधान सभा चुनाव में सभी पार्टियां इसको मुद्दा बना कर एक दूसरे की फजीहत भी करती नज़र आती थी पर ये अब नगर निकाय चुनाव में भी सक्रीय होने लगा है।जिसकी एक खास वजह भी है।
वो खास वजह ये है कि जिस परिवार का कोई एक भी व्यक्ति किसी चुनाव को जीत जाता है तो वो इस जीत को भुनाने का ताउम्र प्रयास जारी रखना चाहता है क्योंकि उसको उस जीत की ताकत का अंदाज़ा होता है और वो ये नही चाहता कि कोई दूसरा उसके बराबर आकर खड़ा हो।
हम इस बार के निकाय चुनाव की ही बात करते है जिसकी तारिक़ भी घोषित हो चुकी है और ये भी तय हो चुका है कि कौन सा वार्ड किस के लिए आरक्षित है।ऐसा होने के बाद सबसे ज़्यादा इसका असर जिस पर होता है वो है तत्कालीन पार्षद,वो इसलिए क्योंकि उसको अपने बीते पांच वर्षों में किये गए खुद के विकास कार्य की चिंता सताने लगती है क्योंकि उनका विकास जनता की अपेक्षा खुद के लिए ज्यादा होता है इस कारण वो ये ठान लेता है कि वार्ड चाहे जिसको आरक्षित ही लड़ेगा उनका कोई अपना ही।
यही वजह है कि अगर सीट महिला होती है तो पार्षद जी अपनी पत्नी या माता जी को उम्मीदवार बना कर चुनाव खुद लड़ते हैं और अगर पार्टी ने टिकट ना भी दिया तो निर्दलीय ही मैदान में कूद जाते है।आपको भी बीते दिनों शहरों में लगे होल्डिंग और बैनर से ये बात पता चल ही गई होगी कि फलां पार्षद जी की पत्नी इस बार उनकी जगह लड़ रही है तो किसी की बहू और किसी की माता जी मतलब चुनाव में कोई जीते तो वो परिवार का ही होना चाहिए।
मेरे ख्याल से ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि आप खुद अपने क्षेत्र में अगर देखते होंगे तो आपको भी लगता होगा कि इस क्षेत्र के पार्षद महोदय ने खुद का बड़ा विकास कर लिया है वो कैसे ये भी आपको पता ही होगा।तो यही वजह है कि उस कुर्सी पर कोई दूसरा ना आ जाये और उनके विकास की जांच ना हो जाये इसलिए परिवारवाद को प्रोत्साहन दिया जाता है ऐसी प्रथा है जो चलती चली आ रही है।