लखनऊ, इरफ़ान शाहिद। लखनऊ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान निभाने वाले विभाग में विभागीय झोल इस क़दर हाबी है जिससे विकास के काम मे ग्रहण लग जाता है।एलडीए में कार्यशैली किस तरह की होती है ये हर वो शख्स जानता है जिस भवन भूखंड के लिए इसके चक्कर लगाने पड़ते हैं यहां एक एक ज़मीन पर कइयों का मालिकाना हक सामने आता है तो कभी कागजों में हेर फेर से व्यक्ति परेशान नज़र आता है ऐसा होता क्यों है ये एक बड़ा सवाल है।अमूमन देखा ये गया है कि लखनऊ विकास प्राधिकरण में वीसी की सीट पर तो बदलाव होता है पर उन बाबुओं तक शासन की नज़र नही पहुंचती जो असल मे एलडीए की छवि धूमिल करने का काम कर रहे होते है शायद उनकी स्थायितता ही उनके मंसूबो को मजबूत कर उन्हें गलत को सही और सही को गलत करने की ताकत देता है।
प्रदेश की मौजूदा सरकार भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध जिस तरह की कार्यवाही सभी विभागों में कर रही है वो काबिले तारीफ है मगर लखनऊ विकास प्राधिकरण पर उसकी चौकस निगाहें असल जगह तक नही पहुंच पा रही जहां से भ्र्ष्टाचार पनप रहा है।
हम बात कर रहे हैं एल डी ए के उन बाबुओं की जो कहने को तो बाबू यानी क्लर्क ही हैं पर उनकी शानो शौकत किसी अधिकारी से कम नही है बड़ी बड़ी गाड़ियों और कई सम्पत्तियों के मालिक इन्ही बाबुओं ने एलडीए पर खुद का ऐसा वर्चस्व स्थापित किया हुआ है कि पूछिये मत जो बाबू की मर्ज़ी के बिना कोई फाइल अधिकारी तक पहुंच ही नही सकती और तो और अगर बाबू नाराज़ हो गया तो या तो फाइल ही गायब हो जाएगी या उसमे इतनी फाल्ट पैदा हो जाएगी कि आपका सही काम भी शक के दायरे में आ जायेगा।
एलडीए विभिन्न प्रकार की योजनाओं को चला कर ज़रुरातमद लोगो को भवन भूखंड देने का प्रयास करता है।जिसकी प्रक्रिया एलडीए द्वारा सामान्य होती है पर उस योजना को देख रहे बाबू के सम्पर्क में आने के बाद आपको ये हक़ीक़त पता चलती है कि असल मे इस योजना से भवन भूखंड पाना कितना कठिन और खर्चीला है मतलब साफ है कि बाबुओं को विभाग द्वारा दी गई ज़िम्मेवारी और छूट का यहां गलत फायदा उठाया जाता है जिससे आवंटी परेशान हो जाता है।
बाबुओं का हौसला इसलिए बुलन्द रहता है क्योंकि उनको पता है कि जिम्मेदारी तो अधिकारी की है इनको कोई कुछ कह भी नही सकता ये तो बस पहली सीढ़ी हैं जवाब तो किसी और को देना पड़ेगा।खैर यहां एक बात ये भी गौर करने वाली है कि बाबू किसी काम को लटकाता क्यों और कैसे है तो जवाब है कि बाबू की मांग पूरी नही हुई तो फाइल गड़बड़ अगर मान लिया तो फाइल एक पायदान खिसक जाएगी वहां तो ये आलम है कि फाइल ढूंढ़वाने से लेकर अधिकारी तक पहुचाने की भी कीमत देनी पड़ती है तब जा कर कोई काम कराया जा सकता है।
सूत्रों की माने तो एलडीए का हर कर्मचारी मनमाने तरीके से काम करता है साथ ही उसका शुल्क भी खुद ही निर्धारित करता है देना पार्टी की मजबूरी बन जाती है पैसा जो फसा होता है।आपको एलडीए में कई ऐसे बाबू मिलेगें जो अपने रसूख़ के चलते एक ही योजना बरसो बरस देखते रहते हैं यही कारण है कि उनका हर ज़ोर सहना आपकी मजबूरी बन जाता है।
यहां सरकार को कम से कम ये ज़रूर तय करना चाहिए कि कोई भी बाबू एक निश्चित समय तक ही एक योजना देख पाए और उनके काम की बराबर निगरानी भी की जाए ज़्यादा छूट देने से ही उनके हौसलों को उड़ान मिलती है और भ्र्ष्टाचार पैदा होता है।साधारण तनखा में ऐसी शानोशौकत आपको एलडीए के बाबू ही दिखा सकते हैं क्योंकि यहां विकास शहर का बताया जाता है पर होता खुद का है।