कांग्रेस कभी भी आरक्षण की चैंपियन नहीं रही है। मंडल आयोग का गठन भले कांग्रेस के राज में हुआ था लेकिन उसने इसकी रिपोर्ट को लागू करने की जरूरत नहीं समझी थी। इसलिए जब कांग्रेस ने गुजरात में चुनाव से पहले पटेलों को आरक्षण देने की राजनीति की तो इस पर सवाल खड़े हुए। एक सवाल तो इस समय आरक्षण की जरूरत को लेकर है और दूसरा सवाल यह है कि क्या यह दांव कानूनी रूप से सही है और इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा?
इन सवालों के जवाब कोई पार्टी नहीं देगी। लेकिन यह विडंबना है कि गुजरात में जहां विकास की बातें हो रही थीं, वहां भी अंतिम रूप से राजनीति आरक्षण पर आ गई है और बिहार में जहां सुशासन के नाम पर राज हो रहा था वहां भी आरक्षण ही अंतिम सत्य बन कर उभरा है। गुजरात से बिहार तक आरक्षण का नया दांव बहुत दिलचस्पी पैदा करने वाला है।
गुजरात में पहले से एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण 49 फीसदी है। अब अगर कांग्रेस पटेलों को आरक्षण देने का फैसला करती है या आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण का फैसला करती है तो उसके लिए आरक्षण की सीमा बढ़ानी होगी। कई जगह इसकी चर्चा शुरू भी हो गई है।
बताया जा रहा है कि कांग्रेस आरक्षण लागू करने के तमिलनाडु के फार्मूले पर विचार कर रही है। तमिलनाडु का आरक्षण का फार्मूला देश के दूसरे राज्यों से अलग है। बाकी राज्यों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से नीचे है, लेकिन तमिलनाडु में 69 फीसदी तक आरक्षण है। इस फार्मूले के मुताबिक सौ सीटों में से पहले 31 सीटों के नतीजे मेरिट पर जारी किए जाते हैं। इसके बाद 19 और सीटें इसमें जोड़ी जाती हैं। इस तरह से 69 फीसदी और 50 फीसदी आरक्षण का स्लैब बनता है। फिर शीर्ष 50 में चुने गए आरक्षित और गैर आरक्षित श्रेणी के छात्रों के आधार पर आरक्षण का असली औसत निकलता है।
इस फार्मूले के मुताबिक आरक्षण 58 से 69 फीसदी के बीच रहता है। 69 फीसदी आरक्षण में 30 फीसदी ओबीसी का है, 20 फीसदी एमबीसी यानी अत्यंत पिछड़ा का है, 18 फीसदी एससी का है और एक फीसदी एसटी का है। कांग्रेस गुजरात में इस फार्मूले को लागू करने पर विचार कर रही है।
जहां तक कानून पक्ष और राजनीतिक फायदे का सवाल है तो वह बहुत उलझा हुआ मामला है। कांग्रेस ने अपने सबसे काबिल वकील कपिल सिब्बल को फार्मूले बनाने में लगाया था। उन्होंने हार्दिक पटेल को अपने फार्मूले पर राजी किया है। इससे पहले हार्दिक ने उनके फार्मूले के बारे में विशेषज्ञों से राय भी ली है और उन्होंने भी इस पर सहमति जताई है। इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि कानूनी रूप से सिब्बल का फार्मूला सही नहीं होगा।
जहां तक राजनीतिक फायदे की बात है तो आरक्षण का यह दांव महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश, हरियाणा सब जगह पिट चुका है। कांग्रेस की सरकार ने हरियाणा में जाटों को आरक्षण देने का फैसला किया था, हालांकि कानूनी रूप से उस पर रोक लग गई, लेकिन चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। इसी तरह मराठों के आरक्षण के मामले में महाराष्ट्र में भी हुआ। वहां भी कांग्रेस और एनसीपी की सरकार में मराठा आरक्षण की पहल की और उसके बाद चुनाव हार गई।
असल में किसी भी राज्य में सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे मजबूत और दबंग रही जाति को आरक्षण देने का फैसला करना राजनीतिक रूप से फायदेमंद नहीं हो सकता है। गुजरात में पटेलों का दबदबा रहा है। उनको आरक्षण का वादा करने से दूसरी कमजोर जातियों में मैसेज ठीक नहीं जाएगा। यहीं घटना हरियाणा और महाराष्ट्र में हुई थी।
सो, आरक्षण का मुद्दा बहुत हाईलाइट होने से जरूरी नहीं कि कांग्रेस को फायदा ही हो।
गुजरात में चुनाव से पहले राजनीतिक अभियान विकास के नाम पर शुरू हुआ था। एक तरफ भाजपा का विकास का दावा था, गुजरात मॉडल था तो दूसरी ओर विकास गांडो थायो छे यानी विकास पागल हो गया है का प्रचार था। पर अचानक यह बहस बदल गई है। अब विकास से ज्यादा चर्चा पटेलों को आरक्षण देने की हो रही है। पटेल, ओबीसी और दलित वोट के ध्रुवीकरण की चर्चा है तो दूसरी ओर सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण का प्रयास है।
पद्मावती फिल्म के बहाने जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है। कांग्रेस ने आरक्षण का दांव चल कर पटेलों को साथ लेने में कामयाबी हासिल की है। पर इससे दूसरी जातियां, जिनका पटेलों से टकराव चलता रहा है, वे नाराज हो सकती हैं। दूसरी ओर भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस पटेलों को गुमराह कर रही है वह 49 फीसदी की सीमा से ज्यादा आरक्षण दे ही नहीं सकती है। सो, अब अगले तीन हफ्ते गुजरात के प्रचार में आरक्षण का मुद्दा छाया रहेगा। पर यह तय है कि चुनाव में अगर आरक्षण का दांव चला तो देश भर में आरक्षण आंदोलन तेज होंगे।