लखनऊ, दीपक ठाकुर। भारत पाकिस्तान कहने को पड़ोसी देश पर ऐसा पड़ोस किसी का ना हो ये हर आदमी दुआ करता है जिसका कारण हम सब जानते हैं। विभाजन के बाद से जिस तरह पाकिस्तान ने भारत के साथ दगाबाजी का दौर शुरू किया है वो आज तक बदस्तूर जारी है और मौजूदा हालात देखते हुए यही लगता है कि आगे भी जारी रहेगा। और यही पाकिस्तानी रवैया हमारी पार्टियों के लिए चुनावी मुद्दा बनता है जिसे पक्ष विपक्ष सभी भुनाने की जुगत में लगे रहते हैं।
शुरुआत से हमारे देश मे सबसे ज्यादा शासन अगर किसी पार्टी का रहा है तो वो है कांग्रेस पार्टी जिसने समझौते को ढाल बना कर कई वर्षों तक देश की गद्दी संभाली उसकी गद्दी हिलाने की वजह भी पाकिस्तान ही मुद्दा बना।भाजपा में जब अटल बिहारी वाजपेई जी का जोर था तब बतौर विपक्षी दल उन्होंने भी कांग्रेस को पाकिस्तान के मुद्दे पर खूब आड़े हाथों लिया और जनता को ये विश्वास दिलाया कि भाजपा सरकार आने पर पाकिस्तान की नापाक हरकतों पे उसे करारा जवाब दिया जाएगा इसी भरोसे से जनता ने उनको देश की कमान सौंपी मगर जनता को मिला क्या ये जनता बेहतर जानती है और हां ये बात खुद अटल जी ने कही कि विपक्ष में बैठ कर आलोचना करना ज़्यादा सरल होता है क्योंकि कुर्सी पाने के बाद कई मजबूरियां घेर लेती है खैर बाजपेई जी ने पाकिस्तान से मधुर संबंध स्थापित करने के लिए आवागमन सुगम बनाया जिससे लोगो के आने जाने का सिलसिला अभी तक जारी है।
अटल जी के बाद केंद्र में फिर कांग्रेस की सरकार आई तो फिर भाजपा ने पाकिस्तान नीति पर उन्हें चारो खाने चित करने का भरपूर प्रयास किया वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने भाषणों से पाकिस्तान को कई बार ऐसी पटकनी दी मानो पाकिस्तान उनकी बातों से ही सहम उठेगा भाजपा की तरफ से पाकिस्तान को लेकर जो बयान आये उससे यही लगा अबकी बार भाजपा पिछली कहानी नही दोहराएगी और कथनी करनी में फर्क नही करेगी मगर अभी तक के मोदी राज में पाकिस्तान को लेकर जो नीति दिखाई दे रही है उससे जनता में ज़रा भी सुकून नही दिखाई दे रहा है जिसकी वजह भी है वो ये कि विपक्ष में और चुनावी भाषणों में जो एक के बदले दस सर लाने की और 56 इंच के सीने की बात की जाती थी वो कुर्सी पर आते ही हवा हो गई जिससे जनता खफा भी नज़र आ रही है।
अब बात ये आती है कि जब पार्टी विपक्ष में होती है तो क्या वो सत्ताधारी पक्ष की मजबूरी से अनजान होती है क्या चुनावी भाषण सिर्फ कुर्सी पाने का हथकंडा मात्र ही होता है जिसे जनता समझ नही पाती अगर ऐसा होता है तो सत्ता से अच्छा विपक्ष ही है जो कम से कम जनता के मन की बात तो बोलता है।