लखनऊ. गोरखपुर और फूलपुर में हुए प्रयोग के नतीजों ने सपा-बसपा को उम्मीद से भर दिया है. पहली बार 1993 में राममंदिर आंदोलन के दौर में बीजेपी की लहर को रोकने के लिए कांशीराम और मुलायम सिंह ने हाथ मिलाया था. इसका असर था कि बीजेपी सूबे की सत्ता में नहीं आ सकी थी. अब दोबारा 25 साल बाद फिर सपा-बसपा गठबंधन को तैयार हैं. इस बार निशाने पर राज्य की नहीं बल्कि केंद्र की मोदी सरकार है.
बन ही गया गठबंधन
बसपा सुप्रीमो मायावती ने सोमवार को सपा से गठबंधन का औपचारिक रूप से ऐलान कर दिया है. आज मायावती ने जोनल कोऑर्डिनेटरों समेत सभी वरिष्ठ नेताओं की बैठक बुलाई थी.
इस बैठक में सपा-बसपा गठबंधन को लेकर फीडबैक लिया गया और 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी चर्चा हुई. बैठक के बाद विधायक सुखदेव राजभर ने बताया कि पार्टी सुप्रीमो ने सपा और बसपा में जमीनी स्तर पर तालमेल बनाने को कहा है.
इसी तरह विधायक विनय तिवारी ने बताया कि मायावती ने गठबंधन को लेकर जो बात कही थी उसी को दोहराया है. हमें चुनाव की तैयारियों में लगने को कहा गया है. एक बसपा नेता की मानें तो पार्टी 35 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकती है. ये वो सीटें होंगी, जहां दलित आबादी ज्यादा है.
बता दें कि सपा-बसपा के साथ आने से बीजेपी की राह 2019 में काफी मुश्किल हो जाएगी. सूबे में दोनों दलों का मजबूत वोट बैंक है. सूबे में 12 फीसदी यादव, 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम हैं. इन तीनों वर्गों पर सपा-बसपा की मजबूत पकड़ है और इन्हें मिलाकर करीब 52 फीसदी होता है. यानी प्रदेश के आधे वोटर सीधे-सीधे सपा और बसपा के प्रभाव क्षेत्र वाले हैं. अब अगर इस गठबंधन में कांग्रेस और आरएलडी जैसी पार्टियां भी साथ जुड़ गईं तो 2019 में बीजेपी के लिए यूपी एक बुरा सपना साबित हो सकता है.