गोरखपुर जिले के नौसड़ चौराहे से महज 200 मीटर की दूरी पर बसे बाढ़ग्रस्त शेरगढ़ गांव के लोगों को जान से ज्यादा सुरक्षा की चिंता है। परिवार के पुरुष सदस्य बांध पर तो बहू-बेटियां बाढ़ में आधे डूबे घरों की छत पर रहने को विवश हैं। यह संकट कब कटेगा, इसका भी कुछ पता नहीं। गांव में एक मंजिल तक पानी भरा है। करीब 200 परिवार अपने माल-मवेशियों के साथ बांध पर शरण लिए हैं। खेती और पशुपालन से आजीविका चलाने वाले नौसड़ के बगल में बसे शेरगढ़ गांव के लोगों को ऊफनाई राप्ती ने इस बार बड़ी तकलीफ दी है। गांव के दुर्गेश, संजीत, मनोज, दिनेश, महेश, मंगरू आदि के घर पूरी तरह डूब गए हैं। किसी तरह ये लोग परिवार के सदस्यों व कुछ जरूरी सामान के साथ बाहर निकल पाए। बांध पर आकर खुद से अधिक चिंता सामान और परिवार के सदस्यों की सुरक्षा की हो गई। मजबूरी में कुछ लोगों ने बहू-बेटियों को रिश्तेदारी में भेज दिया तो कुछ ने महिलाओं को कीमती सामानों के साथ आधे से अधिक डूबे मकान की दूसरी मंजिल या छत पर ठहरा रखा है।
नाव से करते हैं निगरानी
मवेशियों के साथ बांध पर रह रहे लोग दिन में कई बार नाव से अपने घर तक जाते हैं। ये लोग वहां रखे सामान तथा छतों पर रह रहीं बहू-बेटियों की जरूरत, दवा आदि की जानकारी लेते हैं। जरूरत पड़ी तो नाव पर बैठाकर बाहर भी लाते और ले जाते हैं। कुछ घरों के लोगों ने अगर किसी ऊंची जगह पर भूसा रखा है तो वे वहां जाकर भूसा भी लाते हैं।
एक बार मिली मदद
बांध पर शरण लिए लोगों ने बताया कि प्रशासन की तरफ से कुछ दिन पहले राहत सामग्री का डिब्बा दिया गया था, जिसमें अनाज, बिस्कुट आदि सामान था। सबसे बड़ी दिक्कत खाना पकाने की हो रही है। बांध पर रहने की जगह नहीं है तो खाना कैसे बनाएंगे । ग्रामीणों का कहना है कि राहत इतनी है कि बारिश नहीं हो रही है, वरना तकलीफ और बढ़ जाती।
भविष्य को लेकर चिंतित
शेरगढ़ गांव के अधिकतर परिवार खेती, पशुपालन और मजदूरी पर निर्भर हैं। राप्ती की बाढ़ के चलते धान की फसल तो हर साल प्रभावित होती है, लेकिन जो थोड़ा बहुत होता था, इस बार वह भी उम्मीद डूब चुकी है। आय का सबसे बड़ा स्रोत पशुपालन भी प्रभावित है। चारा-भूसे के अभाव में दुधारू पशुओं का दूध बहुत कम हो गया है। जब तक स्थिति ठीक होगी, कई लोगों को अपना मवेशी बेचना पड़ सकता है। बाढ़ की वर्तमान हालत को देखते हुए घर के पुरुष सदस्य कहीं मजदूरी करने भी नहीं जा पा रहे हैं।
बाढ़ पीड़ित बोले-
रामनरेश ने बताया कि बाढ़ तो हर साल आती है, लेकिन इस बार तकलीफ ज्यादा है। अनाज मिला तो जरूर, लेकिन उसे कहां पकाएं। किसी तरह से वक्त काटा जा रहा है। अभी कम से कम एक पखवारा यहां रहना पड़ेगा। बहू-बेटियों को सड़क पर तो रखेंगे नहीं, घर की छत इससे महफूज है।
नसई ने बताया कि हमारे पूर्वज यहां बस गए, हमने भी पक्का मकान बना लिया। अब हर साल बाढ़ की विभिषिका झेलते हैं। हमारे पास इससे अधिक का विकल्प भी नहीं है। बांध पर शरण लिए लोगों को नित्यक्रिया से लेकर रात्रिविश्राम तक का कष्ट है।