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Thursday, December 26, 2024

अमृतलाल नागर ने ड्रामा,डबिंग आर्टिस्ट, प्रोड्यूसर, का भी कार्य किया,पढ़ें पूरी खबर

 

लखनऊ, विमल किशोर- न्यूज़ वन इंडिया | अमृतलाल नागर का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल 19 वर्ष के थे। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्होंने नाटक, रेडियोनाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें साहित्य जगत् में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई तदपि उनका हास्य-व्यंग्य लेखन कम महत्वपूर्ण नहीं है।

शिक्षा
अमृतलाल नागर की विधिवत् शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।

कार्यक्षेत्र
अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी के बाद कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र ‘चकल्लस’ के सम्पादन का कार्य 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में किया इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। यह हिन्दी फ़िल्मों में डबिंग कार्य में अग्रणी थे। दिसम्बर, 1953 से मई, 1956 तक आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।

व्यक्तित्त्व
नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर विचारों को कसते रहते हैं और जितनी मात्रा में उन्हें ख़रा पाते हैं, उतनी ही मात्रा में ग्रहण करते हैं। चाहे उन पर देशी छाप हो या विदेशी, पुरानी छाप हो या नयी। उनकी कसौटी मूलभूत रूप से साधारण भारतीय जन की कसौटी है, जो सत्य को अस्थिर तर्कों के द्वारा नहीं, साधनालब्ध श्रद्धा के द्वारा पहचानती है। अन्धश्रद्धा को काटने के लिए वे तर्कों का प्रयोग अवश्य करते हैं, किन्तु तर्कों के कारण अनुभवों को नहीं झुठलाते, फलत: कभी-कभी पुराने और नये दोनों उन पर झुँझला उठते हैं। ‘एकदा नैमिषारण्ये’ में पुराणों और पौराणिक चरित्रों का समाजशास्त्रीय, अर्ध ऐतिहासिक स्वच्छन्द विश्लेषण या ‘मानस का हंस’ में युवा तुलसीदास के जीवन में ‘मोहिनी प्रसंग’ का संयोजन आदि पुराणपंथियों को अनुचित दुस्साहस लगता है, तो बाबा रामजीदास और तुलसी के आध्यात्मिक अनुभवों को श्रद्धा के साथ अंकित करना बहुतेरे नयों को नागवार और प्रगतिविरोधी प्रतीत होता है। नागर जी इन दोनों प्रकारों के प्रतिवादों से विचलित नहीं होते। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी एक साहित्यिक खाने में नहीं रखे जा सकते।

विचार

अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रंजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है, वैसे ही उनका समाजवाद किसी राजनीतिक दल के पास बन्धक नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते।

जगत् के प्रति दृष्टिकोण

नागर जी की जगत् के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं। किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते। जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे हैं। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।[1] नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते।

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