लखनऊ,शैलेन्द्र कुमार। उत्तर प्रदेश का नाम आते ही हमारे दिमाग में पहले यही बात चलती है कि यह हमारा प्रदेश है लेकिन उत्तर प्रदेश की पहचान तो राजनीति के भंवर में फंसकर रह गयी है । उत्तर प्रदेश में तो राजनेताओं का आकलन इस बात से नहीं होता कि वह प्रदेश के लिए उन्नति के स्तर पर कैसा काम करते हैं, बल्कि इस आधार पर होता है कि वे किस जाति या धर्म समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं या पक्षधर हैं।
इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च के दिवगंत प्रोफ़ेसर आशीष बोस ने बहुत ख़राब प्रदर्शन करने वाले राज्यों बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के अंग्रेजी के पहले अक्षरों को मिलाकर ‘बीमारू ‘(बीआईएमएआरयू) शब्द बनाया था।
प्रोफ़ेसर बोस की इस व्याख्या के तीन दशक बाद बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान ने तो अच्छी प्रगति कर ली है और पूर्णतया देखें तो ये विकास के रास्ते पर हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश अब भी बेहाल और बीमार है।
कृषि क्षेत्र का विकास धीमी गति से चल रहा है, उद्योग ठप पड़े हैं, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों का हाल बुरा है और क़ानून व्यवस्था की स्थिति अब भी बदहाल है। सारे लोग परेशांन हैं और हालत यह है कि पी.एच.डी. डिग्री वाले तक सरकारी ऑफिस के चपरासी की नौकरी के लिए फॉर्म भरने को मजबूर हैं। यही नहीं उत्तर प्रदेश की इस हालत के लक्षण यहाँ के सबसे बड़े शहर कानपूर में साफ देखे जा सकते हैं।
एक समय यह एक बड़ा औद्योगिक केंद्र था, जहाँ चमड़े के सामान और केमिकल उत्पादों के साथ ही बहुत सी चीजों का निर्माण होता था। यहाँ तक की कानपुर की औद्योगिक प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर अमेरिका ने यहाँ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की स्थापना में सहयोग किया था। लेकिन जिन लोगों ने उसके उन्नति के दिनों में उसे देखा था, वे शायद अब पहचान भी न पाए।
शहर के पुराने उद्योग या तो बंद पड़े हैं या तो होने की स्थिति में हैं।यहाँ तक कि आईआईटी के लिए प्रसिद्ध 1960 के दशक से 1980 के दशक के दौरान प्रसिद्ध कानपुर अब दिल्ली, मद्रास और चेन्नई के आईआईटी की रैंक से भी पिछड़ गया है। उतार प्रदेश में शासन की इतनी बदतर हालत क्यों है? इसका एक बड़ा कारन है कि इसकी पहचान राजनीति के बवंडर में फंसकर रह गयी है।
इस राज्य में राजनेताओं ने प्रदेश का नाम काम और उन्नति के लिए नहीं बल्कि जाति और धर्म के लिए फैलाकर रख दिया है। आश्चर्य कि बात तो यह है कि राज्य के चुनाव में प्रेस की कवरेज में भी यह नजर आई, जब बहुत काम रिपोर्टरों ने विकास और शासन के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया, वरना बाकी के पत्रकारों ने तो अपनी ऊर्जा शक्ति को यह समझने के लिए बचा रखी थी कि कौन-सी जाति समूह किस धार्मिक समूह के साथ गठजोड़ बना रहा है।
अखिलेश यादव ने हाल ही में अपने आप को विकास पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन इतनी देर से कि स्वीकार करना भी मुश्किल है क्योंकि उन्होंने राहुल के साथ गठबंधन भी कर लिया है। वहीँ भाजपा ने अपने प्रचार की शुरुआत मोदी शैली के विकास वादे से की थी, लेकिन बाद में उसने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता ध्रुवीकरण पर दांव लगाया।
वही मायावती भी लगातार अपनी पार्टी के पक्ष में दलित-मुस्लिम एकता की बात कर रही हैं। इस विधानसभा चुनाव में चाहे जो दल जीते, इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने वाला।