नई दिल्ली, एजेंसी । किसी धार्मिक समुदाय का पर्सनल लॉ संसद द्वारा बनाए गए कानून को ओवरराइड नहीं कर सकता, इस फैसले को दोहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चर्च कोर्ट द्वारा दिए जाने वाले तलाक के आदेश की कोई वैधता नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि ईसाई दंपती का कानूनी रूप से तलाक तभी मान्य होगा जब वह भारतीय कानून के तहत लिया गया हो।
चीफ जस्टिस जेएस खेहड़ और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने वकील क्लीयरेंस पायस द्वारा दायर चर्च कोर्ट द्वारा तलाक सहित अन्य मामले में दिए जाने वाले आदेश को मान्यता देने की गुहार संबंधी याचिका खारित कर दी है।
याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया था कि कैथोलिक ईसाइयों में शादी, तलाक आदि चर्च के निर्णय के जरिए होते हैं। ऐसे में चर्च कोर्ट द्वारा दिए जाने वाले आदेशों को मान्यता दी जाए। उनकी दलील थी कि अगर अगर चर्च कोर्ट को मान्यता नहीं दी गई तो कैथोलिक समुदाय को भारतीय दंड संहिता केतहत बहुविवाह का दोषी माना जाएगा।
पीठ ने कहा याचिका में मेरिट का अभाव है और वर्ष 1996 में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसले को ध्यान में रखते हुए याचिका खारिज की जाती है। मालूम हो कि वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में ईसाइयों में होने वाली शादी व तलाक को लेकर कानून को स्पष्ट कर दिया था।
तलाक देने का अधिकार सिर्फ जिला अदालत या हाईकोर्ट को है
पीठ ने कहा कि अगर संसद कोई कानून बनता है, भले ही वह कानून किसी समूह या समुदाय के पर्सनल लॉ से संबंधित हो, तो भी वहीं कानून ही मान्य होगा न कि पर्सनल लॉ या कोई परंपरा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पर्सनल लॉ या वह परंपरा, कानून बनने से पहले से वजूद में हो। पीठ ने साफ कहा कि तलाक देने का अधिकार सिर्फ जिला अदालत या हाईकोर्ट को है। ऐसे में चर्च कोर्ट सहित किसी अन्य अथॉरिटी को इस तरह का आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है।
पीठ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सोली सोराबजी की उस दलील को खारिज कर दिया कि जिस तरह मुस्लिम समाज मेंट्रिपल तलाक को एक तरह से कानूनी दर्जा मिला हुआ है उसी तरह चर्च कोर्ट द्वारा दिए जाने वाले आदेशों को मान्यता मिलनी चाहिए।
मालूम हो कि पिछली सुनवाई केअदालत ने कहा था भारत फिलहाल पंथनिरपेक्ष देश है लेकिन पता नहीं यह कब तक रहेगा। हमें धर्म को सिविल लॉ अलग करना होगा, यह जरूरी है। वैसे भी पहले से ही बहुत परेशानी है।