नई दिल्ली,एजेंसी। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हाथ का साथ कभी न छूटने और 27 अगस्त को पटना में भाजपा विरोधी दलों की साझा रैली में खुद और बसपा सुप्रीमो के शामिल होने की बात कहकर सूबे में एक बार फिर नए सियासी गठबंधन की संभावनाओं को जन्म दे दिया है।
साथ ही एक बार फिर यह बात उजागर कर दी है कि प्रदेश में भाजपा विरोधी दल अब यह मान चुके हैं कि एक हुए बिना वे भाजपा के वोटों के गणित से मुकाबला नहीं कर सकते। पर, प्रदेश का सियासी गणित और सपा व बसपा की उथल-पुथल इन संभावनाओं पर सवालिया निशान भी लगा रही है।
साथ ही यह आशंका भी पैदा कर रही है कि सपा नेता शिवपाल सिंह यादव और बसपा से निष्कासित नसीमुद्दीन सिद्दीकी भाजपा विरोधी गठबंधन की फांस न बन जाएं।
मुलायम की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण होगी। कारण, अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब बिहार में लालू की तरफ से देश में भाजपा विरोधी महागठबंधन खड़ा करने की कोशिश को मुलायम ने ही बिहार चुनाव में सपा के उम्मीदवार उतारकर अंगूठा दिखा दिया था।
क्या साथ आएंगे मुलायम-मायावती
शिवपाल ने 6 जुलाई को समाजवादी सेकुलर मोर्चा गठित करने और मुलायम को उसका अध्यक्ष बनाने की बात कही है। यह भी स्पष्ट किया है कि मोर्चा के गठन का मकसद पुराने और उपेक्षित समाजवादियों व कार्यकर्ताओं को एकजुट करना है।
दूसरी तरफ बसपा के बड़े मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी मायावती से अलग होकर राष्ट्रीय बहुजन मोर्चा बना चुके हैं। वह भी शिवपाल की तर्ज पर ही बसपा से निकाले गए और मायावती द्वारा उत्पीड़ित लोगों को जोड़ने की बात कह चुके हैं। उससे भी इन मोर्चों के नए गठबंधन की संभावनाओं में फांस बनने की आशंका ही दिखाई देती है।
कारण, नसीमुद्दीन का मायावती विरोधी रुख और शिवपाल का यह कहना कि पहले समाजवादी पार्टी और परिवार तो मुलायम के नेतृत्व में एकजुट हो जाए, फिर गठबंधन पर बात होगी, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कम से कम ये दोनों नेता भाजपा विरोधी उस गठबंधन में जिसमें अखिलेश या मायावती हों, जाने वाले नहीं हैं।
मुलायम के रुख से तय होगा भविष्य
जाहिर है, इन नेताओं का अलग पाले में खड़े होना गठबंधन को कमजोर ही करेगा। ऊपर से मुलायम का रुख भी गठबंधन के भविष्य पर असर डालेगा।
कारण, शिवपाल के दावे के मुताबिक मुलायम अगर उनके मोर्चे के अध्यक्ष पद को संभालते हैं तो संभावना है कि वह भी इस गठबंधन के विरोधी पाले में खड़े होंगे। इससे गठबंधन की मुश्किलें बढ़ेगी।
अगर वह शिवपाल के मोर्चे की अध्यक्षी नहीं सभालते हैं तो देखने वाली बात यह भी होगी कि उनकी भूमिका क्या होगी। क्या वह पुत्र अखिलेश के भविष्य के लिए गठबंधन के साथ खड़े होंगे?
उस स्थिति में बसपा सुप्रीमो क्या मायावती स्टेट गेस्ट हाउस कांड को भूलकर उनकी मौजूदगी स्वीकार करेंगी।
महत्वपूर्ण है अखिलेश की बात
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव
अखिलेश यादव का गठबंधन पर बयान इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि यह सोनिया गांधी की अध्यक्षता में भाजपा विरोधी दलों की उस संयुक्त बैठक के बाद आया है, जो राष्ट्रपति चुनाव के सिलसिले में विरोधी दलों की तरफ से साझा उम्मीदवार उतारने पर विचार करने के लिए बुलाई गई थी।
बैठक में बसपा प्रमुख मायावती शामिल थीं और सपा के प्रमुख रणनीतिकार प्रो. रामगोपाल यादव भी। अखिलेश ने यह भी साफ किया है कि 27 अगस्त को पटना में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में होने वाली साझा रैली 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने के सिलसिले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
सपा प्रमुख की ये बातें विरोधी दलों में भाजपा को रोकने की छटपटाहट व बेचैनी बताने के लिए पर्याप्त हैं। गठबंधन आकार ले पाएगा या नहीं, इस सवाल का जवाब तो भविष्य में मिलेगा, पर लगता है कि वोटों के गणित ने भाजपा विरोधियों को परस्पर दुश्मनी भुलाकर आपस में हाथ मिलाने को मजबूर कर दिया है।
इसलिए मजबूरी व छटपटाहट
विधानसभा चुनाव के नतीजों को अभी तीन महीने पूरे नहीं हुए हैं, पर यह तीसरा मौका है जब सपा ने बसपा से पुरानी दुश्मनी भुला आपस में हाथ मिलाकर नए राजनीतिक समीकरण गढ़ने की संभावनाओं को सार्वजनिक किया है। बसपा प्रमुख भी पहले इस पर सकारात्मक रुख जता चुकी हैं।
ऐसा लगता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस सहित उत्तर प्रदेश की सियासत में प्रमुख भूमिका निभाने वाली सपा व बसपा ने शायद मान लिया है कि एक हुए बिना भाजपा का मुकाबला करना मुश्किल है। यह अकारण नहीं है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को गठबंधन सहित 42.65 प्रतिशत वोट मिले थे। दूसरी तरफ सपा, कांग्रेस और बसपा को मिले वोटों का प्रतिशत 49.65 प्रतिशत रहा था। पर, भाजपा विरोधियों को सीटें सिर्फ सात ही मिली थीं।
बसपा 19.77 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद एक भी सीट जीत नहीं पाई थी। विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को 41.4 प्रतिशत वोट और 325 सीटें मिलीं। सपा, बसपा और कांग्रेस के हिस्से में पड़े वोटों का प्रतिशत तो 50.20 प्रतिशत रहा, पर सीटें सौ से भी कम रह गईं। सपा को 47, बसपा को 19 और कांग्रेस को मात्र 7 सीटें मिलीं। इन पार्टियों के रणनीतिकारों को लग रहा है कि बिना हाथ मिलाए बात बनने वाली नहीं।